ज़की भारतीय
लखनऊ, 6 अक्टूबर । देश की सर्वोच्च अदालत में सोमवार को एक अभूतपूर्व घटना घटी, जब एक अधिवक्ता ने मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) बी.आर. गवई पर जूता फेंकने का प्रयास किया। यह हादसा तब हुआ जब सीजेआई गवई की अगुवाई वाली बेंच केसों के मेंशनिंग के दौरान सुनवाई कर रही थी। अधिवक्ता राकेश किशोर ने डेस तक पहुंचकर अपना जूता उतारने की कोशिश की और उसे फेंकने का इरादा जाहिर किया, लेकिन सुरक्षाकर्मियों ने उसे तुरंत पकड़ लिया। घटना के बाद कोर्ट में हंगामा मच गया, लेकिन सीजेआई गवई ने शांत भाव से सुनवाई जारी रखीं। पुलिस ने अधिवक्ता को हिरासत में ले लिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट कार्यालय द्वारा कोई शिकायत न दर्ज कराए जाने पर उसे बिना मुकदमा चलाए छोड़ दिया गया।
यह घटना महज एक व्यक्तिगत आक्रोश नहीं, बल्कि सदियों पुरानी जातिगत विषमताओं का प्रतीकात्मक विस्फोट है। सीजेआई गवई, जो देश के पहले बौद्ध और दूसरे दलित मूल के मुख्य न्यायाधीश हैं, पिछले मई से पद पर हैं। उनके कार्यकाल में कई ऐसे फैसले आए हैं जो कट्टरपंथी तत्वों को चुभ रहे हैं। खासकर बुलडोजर कार्रवाई के खिलाफ उनके रुख ने ऊपरी जातियों के एक वर्ग को असहज कर दिया है। हाल ही में खजुराहो मंदिरों पर उनकी टिप्पणी—”अपने देवता से पूछ लो”—को लेकर भी विवाद खड़ा हो गया, जिसे अधिवक्ता ने “सनातन धर्म का अपमान” बताते हुए यह कृत्य किया। लेकिन सच्चाई यह है कि गवई जैसे दलित न्यायाधीशों का उदय ही कुछ लोगों को हजम नहीं हो पा रहा।
यह आक्रोश की जड़ें वेदों और मनुस्मृति जैसे प्राचीन ग्रंथों में छिपी हैं, जहां ब्राह्मणों को मुख से उत्पन्न बताकर सर्वोच्च स्थान दिया गया, तो शूद्रों (जिनमें आज के दलित शामिल हैं) को पैरों से जन्मा बताकर मात्र सेवा का दायित्व सौंप दिया। यह वर्ण-व्यवस्था सांकेतिक रूप से वर्णित है, न कि शाब्दिक—मतलब यह नहीं कि कोई वास्तव में पैरों से पैदा हुआ। फिर भी, इसने सदियों से दलितों को “जूते-चप्पल” की सेवा तक सीमित रखने का औजार बनाया। आज भी, जब दलित युवा आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर या डॉक्टर बन रहे हैं, तो यह “शूद्र सेवा” की अवधारणा कुछ कट्टर हिंदू मान्यताओं को खल रही है। बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा रचित संविधान ने इसी अन्याय को उखाड़ फेंका, सभी को समान अधिकार देकर। लेकिन अंबेडकर के कानूनों को लिखे जाने से लेकर आज तक, कुछ जातियां इसे पचा नहीं पा रही। गवई पर यह जूता फेंकना उसी पुरानी मानसिकता का परिणाम है—जब दलित उच्च पद पर पहुंचते हैं, तो “पैरों से जन्मे” को “मुख” पर बैठते देखना असहनीय हो जाता है।
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने इस घटना की कड़ी निंदा करते हुए कहा, “यह न केवल सीजेआई गवई पर हमला है, बल्कि पूरे संविधान और समानता के सिद्धांत पर प्रहार है। सभी इंसान ईश्वर की संतान हैं, जाति से ऊपर। अगर कोई नेलाई (नाई) पैदा हुआ, तो वह आईपीएस या आईएएस क्यों न बने? डॉक्टर, इंजीनियर क्यों न बने? दलितों को सेवा तक सीमित रखना हिंदू धर्म की विकृत व्याख्या है, जो मनुस्मृति जैसी किताबों से उपजी है। बाबासाहेब ने इसे चुनौती दी, और आज गवई जैसे न्यायाधीश उसी विरासत को मजबूत कर रहे हैं।”
राजनीतिक हलकों में भी यह घटना बहस का विषय बनी हुई है। कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने इसे “न्यायपालिका पर हमला” बताते हुए चिंता जताई, जबकि बीजेपी ने इसे व्यक्तिगत कृत्य करार दिया। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह दलित सशक्तिकरण के खिलाफ बढ़ते असंतोष का संकेत है। गवई ने घटना पर टिप्पणी करते हुए कहा, “ऐसी घटनाएं मुझे प्रभावित नहीं करतीं। हमारा काम संविधान की रक्षा करना है।”
यह वाकया समाज को आईना दिखाता है—क्या हम वाकई समानता की दिशा में बढ़ रहे हैं, या पुरानी जकड़नें अभी भी हमें खींच रही हैं? दलितों की उन्नति को “अपमान” मानने वाली मानसिकता तब तक बनी रहेगी, जब तक शिक्षा और जागरूकता न फैले। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कोई सख्त कार्रवाई न करने का फैसला लिया, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह नरमी जातिवादी ताकतों को और हौसला देगी?
इस घटना में सुप्रीम कोर्ट को कठोर कार्रवाई करना आवश्यक थी, इस कार्रवाई के न होने से भविष्य में और कट्टरपंथी लोगों को भी बल मिलेगा, और इस तरह की घटनाएं अंजाम देंगे, जिससे और जजों के मनोबल टूट सकते हैं, क्योंकि आज जूता फेंका गया है तो कल कोई गोली चला सकता है ,तो कभी बम से भी हमला कर सकता है।अगर ऐसा हुआ तो आने वाले समय में जज किसी भी फैसला देने से पहले सोचने के लिए मजबूर हो जाएंगे।



