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ये घर की बात जो बाज़ार तक नही आए। मेरी खबर किसी अख़बार तक नही आए।

 

           ग़ज़ल

ये घर की बात जो बाज़ार तक नही आए।
मेरी खबर किसी अख़बार तक नही आए।

तुम्हारी याद में रुखसार तक नही आए।
शरीफ अश्क थे बाज़ार तक नही आए।

असीर कर के हमें इश्क खैच लाया है।
ख़ुशी ख़ुशी रसनो दार तक नही आए।

जो हाथ कर गए दामन को तार तार मेरे।
खुदा का शुक्र वो दस्तार तक नही आए।

थी फेस बुक पा हजारों से दोस्ती उनकी।
मगर जनाज़े में दो चार तक नही आए।

जला के घर न सियासत की रोटियां सेंकी।
हम इसलिए कभी सरकार तक नही आए।

ये और बात के चलना भी तुमने सीख लिया।
मगर अभी मेरी रफ्तार तक नही आए।

है ईट ईट मे मेहनत की रौशनी इतनी।
हराम साए भी दीवार तक नही आए।

थीं जिनके पांव मे खुद्दार बेड़ियां अंजुम।
वो मुफलिसी में भी दरबार तक नही आए।

             शायर
जनाब अंजुम लखनवी साहब 

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