लखनऊ के उभरते हुए कमसिन शायर मोहतरम क़ंबर नक़वी जहाँ अहलेबैत अलैहिस्सलाम की शान में बेहतरीन अशआर के ज़रिये खुद की शिनाख्त बना चुके हैं वहीँ ग़ज़लों के मैदान में भी वो किसी तआरुफ़ के मोहताज नहीं हैं। आज उनकी एक ग़ज़ल मेरी नज़रों के सामने आई जिसे पढ़ने के बाद मैंने सोचा ,क्यों न आज अपने पोर्टल के ज़रिये इस कमसिन शायर की शायरी आप हज़रात तक पहुंचाई जाए,तो आइये पेश करते हैं शायर इरफ़ान ज़ंगीपुरी साहब के घर मुनअक़्क़िद हुए तरही मुशायरे में पेश की गई जनाब क़ंबर नक़वी साहब की ग़ज़ल।
मिस्रा-ए-तरह:
“तेरी क़ुरबत मुझे मग़रूर ना होने देगी”
“ग़ज़ल”
दिल रंजूर को मसरूर ना होने देगी।
शब-ए-फ़ुरक़त सहर-ए-नूर ना होने देगी।।
हर ख़ुशी चाहे ज़माने की क़रीब आ जाए।
ग़म-ए-जानाँ से मुझे दूर ना होने देगी।।
शाहज़ादी से मोहब्बत तो बहुत है लेकिन।
मुफ़लिसी वस्ल को मंज़ूर ना होनेदेगी।।
रिंद की आँख तेरी आँख से मिल जाए अगर।
आर्ज़ू-ए-मय-ए-अंगूर ना होने देगी।।
तेरी आँखें, तेरी ज़ुल्फ़ें, तेरी ख़ुशबू की क़सम।
तेरी क़ुरबत तलब-ए-हूर ना होने देगी।।
आज़माइश का अगर डर है मोहब्बत न करो।
आशिक़ी कोई बला दूर ना होने देगी।।
इब्ने आदम हूँ मैं, तू जिसको कहे सजदा करूँ।
तेरी क़ुरबत मुझे मग़रूर ना होने देगी।।
ऐ मेरे नाक़िद-ए-फ़न, तेरी ये है रहम नज़र।
एक ग़ज़ल भी मेरी मशहूर ना होने देगी।।
क़ंबर नक़वी
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