जिस तरह लखनऊ में कमसिन शायर अपनी शायरी और ग़ज़लों के ज़रिए अदब की दुनिया में लोहा मनवा रहे हैं, वह अपने आप में एक मिसाल है। यह लखनऊ के लिए फख्र की बात है कि इस शहर का शायरी से ताल्लुक़ बा-कमाल पुराना और गहरा है। लखनऊ अदब का गहवारा है, जहाँ उर्दू ज़बान की तहज़ीब और शाइस्तगी का आलम बुलंद है। उर्दू की वजह से यहाँ की शीरीं ज़बान में एक अनोखा जादू और रवानी नज़र आती है। चाहे वह मजहबी शायरी हो, ग़ज़ल हो, या फिर मोहब्बत और ज़िंदगी पर मुंहसिर कलाम, लखनऊ का नाम इनसे हमेशा रौशन रहा है, है, और उम्मीद है कि आगे भी रहेगा।आज हम ऐसे ही एक कमसिन शायर की बात कर रहे हैं, जो न सिर्फ़ शायरी में माहिर हैं, बल्कि ग़ज़लों में भी अपनी ख़ास छाप छोड़ रहे हैं। कुछ शायर अपनी ख़ुद्दारी और इज़्ज़त-ए-नफ़्स की वजह से स्टेज पर वह मुकाम नहीं पा सके, जो उनका हक़ है। फिर भी, उनका कलाम आज भी लोगों की ज़बानों पर चढ़ा हुआ है।इसी सिलसिले में एक नाम है—फुरक़ान साहब का। आज मैं उनकी एक ग़ज़ल आप हज़रात के सामने पेश कर रहा हूँ। इस ग़ज़ल को पढ़ने के बाद अगर आपको लगे कि इसमें दम है, और उनकी कम उम्र के हिसाब से यह कलाम बा-कमाल है, तो ज़रूर दाद दें। ताकि उनकी हौसला-अफ़ज़ाई हो और आने वाले वक़्त में वह लखनऊ से एक और बेमिसाल शायर बनकर उभरें।

ये अन-अल हक़ कि सदा दूर ना होने देगी।
नहीं ऐसा मुझे मनसूर ना होने देगी।।
एक तजल्ली ने कहा हंस के ये कैसे सोचा।
रेज़ा रेज़ा ये कभी तूर ना होने देगी
लाख तक़दीर में लिख्खी हो मुसलसल हिजरत।
फिर भी अहबाब से वो दूर ना होने देगी।।
मैंने सुरमा जो लगाया है तेरी यादों का।
तेरी चाहत उसे काफूर ना होने देगी।।
तुमसे मिलने का जो एक ख्वाब है आंखों में मेरी।
उस की ताबीर ही बेनूर ना होने देगी।।
मरहमे इश्क की तासीर ना पूछे कोई।
ये कभी ज़ख्म को नासूर ना होने देगी।।
नाम सौ बार भी लिखवाएगी चाहत तेरी ।
ये क़लम को मेरे माज़ूर ना होने देगी।।
कर के तामीर रहूंगा तेरी यादों का महल।
मुफलिसी भी मुझे मजबूर ना होने देगी।।
मेरी नज़रों में बसी है जो हंसी तर सूरत।
वो किसी और को अब हूर ना होने देगी।।
इनकिसारी ही ने बख्शी मुझे क़ुरबत तेरी ।
तेरी क़ुरबत मुझे मग़रूर ना होने देगी।।
शम्मे किरदार जलाई है जो मैंने “फुरक़ान”।
रौशनी मुझसे कभी दूर ना होने देगी ।।



