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ताहिर हाशमी
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में राजेश चड्ढा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें 26 साल पुराने दहेज उत्पीड़न और क्रूरता के मामले में राजेश चड्ढा को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया। यह मामला भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के तहत दर्ज किया गया था। इस फैसले को उजागर करने में माननीय उच्च न्यायालय खंडपीठ, लखनऊ के एडवोकेट अखिलेश तिवारी और माननीय सर्वोच्च न्यायालय के एडवोकेट अनुराग दूबे की महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिनके अथक प्रयासों ने इस मामले को सही दिशा में ले जाने में योगदान दिया।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां और फैसला
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने 13 मई 2025 को अपने फैसले में धारा 498ए के दुरुपयोग पर गहरी चिंता व्यक्त की। कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक विवादों में अस्पष्ट और बिना सबूत के आरोप लगाने की प्रवृत्ति कानून की मंशा को कमजोर करती है। इस मामले में शिकायतकर्ता के आरोप सामान्य और अस्पष्ट थे, जिनमें क्रूरता की विशिष्ट तारीख, समय या घटनाओं का उल्लेख नहीं था। शिकायतकर्ता अपने गर्भपात के दावे को चिकित्सकीय साक्ष्य से भी सिद्ध नहीं कर सकी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बिना ठोस साक्ष्य के उचित संदेह से परे दोष सिद्ध करना असंभव है।सुप्रीम कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि वैवाहिक विवादों में अक्सर पति के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्यों, जैसे बुजुर्ग माता-पिता और दूर के रिश्तेदारों, को भी बिना सबूत के फंसाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह प्रथा कानून के मूल उद्देश्य को नष्ट करती है, जो महिलाओं को वास्तविक क्रूरता और दहेज उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
1999 में राजेश चड्ढा की पत्नी ने उनके खिलाफ मानसिक और शारीरिक क्रूरता के साथ-साथ दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराई थी। शिकायतकर्ता ने दावा किया कि चड्ढा ने दहेज की मांग को लेकर उसे प्रताड़ित किया और शारीरिक हमले के कारण उसका गर्भपात हुआ। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ये आरोप अस्पष्ट थे और इनका कोई ठोस आधार नहीं था। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि चड्ढा और शिकायतकर्ता ने 1997 में शादी के बाद केवल 12 दिन साथ रहने का दावा किया था, और तलाक की कार्यवाही शुरू होने के बाद ही एफआईआर दर्ज की गई, जिससे आरोपों की प्रामाणिकता पर संदेह पैदा हुआ।
निचली अदालतों का रुख
ट्रायल कोर्ट ने चड्ढा को धारा 498ए और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 के तहत दोषी ठहराया और क्रमशः दो साल और एक साल की सजा सुनाई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2018 में इस सजा को बरकरार रखा। इसके बाद, चड्ढा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, जहां एडवोकेट प्रीतिका द्विवेदी ने उनका प्रतिनिधित्व किया, जबकि उत्तर प्रदेश राज्य का पक्ष एडवोकेट शौर्य सहाय, आदित्य कुमार और रुचिल राज ने रखा। इस मामले में एडवोकेट अखिलेश तिवारी और एडवोकेट अनुराग दूबे के योगदान ने इसे व्यापक स्तर पर उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बेगुनाह की सजा: जिम्मेदारी किसकी?
इस फैसले ने एक गंभीर सवाल उठाया: एक बेगुनाह व्यक्ति को 26 साल तक कानूनी उत्पीड़न और सामाजिक कलंक क्यों सहना पड़ा? राजेश चड्ढा को उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ी, जो उन्होंने कभी किया ही नहीं। इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या यह पुलिस की लापरवाही थी, जिसने निष्पक्ष जांच नहीं की? क्या यह शिकायतकर्ता की दुर्भावना थी, जिसने आधारहीन आरोप लगाए? या फिर यह हमारी न्यायिक प्रणाली की कमजोरी है, जो समय पर न्याय नहीं दे पाती? सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अदालतें केवल साक्ष्य और तथ्यों के आधार पर फैसला देती हैं, लेकिन यदि प्रारंभिक जांच निष्पक्ष नहीं होती, तो निर्दोष लोग लंबी कानूनी प्रक्रिया का शिकार बनते हैं। इस मामले में, यदि पुलिस ने शुरुआती स्तर पर गहन जांच की होती, तो शायद चड्ढा को यह कष्ट नहीं सहना पड़ता।
पुलिस की भूमिका और जांच में सुधार की जरूरत
पुलिस की जांच प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता की कमी इस मामले में एक बड़ा मुद्दा रहा। अक्सर दहेज उत्पीड़न के मामलों में पुलिस बिना ठोस सबूतों के एफआईआर दर्ज कर लेती है और जांच को गंभीरता से नहीं लेती। सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) जैसे मामलों में दिशानिर्देश जारी किए हैं, जिसमें तत्काल गिरफ्तारी से बचने और पहले जांच करने की सलाह दी गई थी। फिर भी, इन दिशानिर्देशों का पालन पूरी तरह नहीं हो रहा।कानून के दुरुपयोग का सामाजिक प्रभावधारा 498ए को 1983 में महिलाओं को दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से बचाने के लिए लागू किया गया था, लेकिन इसका दुरुपयोग अब एक “कानूनी हथियार” के रूप में हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रीति गुप्ता बनाम झारखंड राज्य (2010) और आचिन गुप्ता बनाम हरियाणा राज्य जैसे मामलों में इस दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशानिर्देश दिए हैं, लेकिन समस्या बरकरार है। इससे न केवल निर्दोष लोग प्रभावित हो रहे हैं, बल्कि उन महिलाओं के लिए भी चुनौती बढ़ रही है, जो वास्तव में उत्पीड़न का शिकार हैं।सरकार और प्रशासन से अपीलइस मामले ने धारा 498ए के तहत जांच प्रक्रिया में सुधार की जरूरत को रेखांकित किया है। एडवोकेट अखिलेश तिवारी (माननीय उच्च न्यायालय खंडपीठ, लखनऊ) और एडवोकेट अनुराग दूबे (माननीय सर्वोच्च न्यायालय) ने इस मामले को उजागर कर एक मिसाल कायम की है।
सरकार और प्रशासन को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए
निष्पक्ष जांच: पुलिस को हर मामले में गहन और निष्पक्ष जांच के लिए प्रशिक्षित किया जाए।
दिशानिर्देशों का पालन: सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का कड़ाई से पालन हो।
कानूनी सुधार: धारा 498ए के दुरुपयोग को रोकने के लिए विधायी सुधार किए जाएं।
न्याय तक पहुंच: निचली अदालतों में त्वरित और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित की जाए।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला राजेश चड्ढा के लिए राहत लेकर आया, लेकिन यह समाज और प्रशासन के लिए एक चेतावनी है। धारा 498ए का दुरुपयोग निर्दोष लोगों के जीवन को नष्ट करता है और कानून की साख को कम करता है। एडवोकेट अखिलेश तिवारी और एडवोकेट अनुराग दूबे जैसे कानूनी विशेषज्ञों के प्रयासों ने इस मामले को सामने लाकर न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। सरकार और प्रशासन को ऐसी प्रणाली विकसित करनी चाहिए, जो निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ सभी को समयबद्ध न्याय प्रदान करे।