ज़की भारतीय
लखनऊ , 21 मई । भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा के सोनीपत स्थित अशोका विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से संबंधित सोशल मीडिया पोस्ट के मामले में अंतरिम जमानत दे दी है। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एनके सिंह की पीठ ने सुनाया। कोर्ट ने प्रोफेसर खान को निर्देश दिया कि वे भारत में हुए आतंकी हमलों या देश की जवाबी कार्रवाइयों से संबंधित कोई भी सोशल मीडिया पोस्ट नहीं करेंगे। इस फैसले को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
ये थी अली खान की पोस्ट , “मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि इतने सारे दक्षिणपंथी टिप्पणीकार कर्नल सोफिया कुरैशी की सराहना कर रहे हैं, लेकिन शायद वो उतनी ही जोर से यह भी मांग कर सकते हैं कि भीड़ की ओर से हत्या, मनमाने ढंग से बुलडोजर चलाने और बीजेपी के नफरत फैलाने के शिकार अन्य लोगों को भारतीय नागरिकों के रूप में संरक्षित किया जाए।” पोस्ट के अंत में उन्होंने तिरंगे के साथ ‘जय हिंद’ लिखा था।
सवाल यह है कि उनकी पोस्ट में ऐसा क्या था जो आपत्तिजनक था या महिलाओं का अपमान करता था? एक आठवीं पास व्यक्ति भी उनकी पोस्ट पढ़कर समझ सकता है कि उसमें ऐसा कुछ नहीं था जिसके आधार पर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हो। फिर भी, पढ़े-लिखे लोगों द्वारा जल्दबाजी में उनके खिलाफ कार्रवाई और मुकदमा दर्ज करना संदेहास्पद है। उन्होंने अपनी पोस्ट में सोफिया कुरैशी की प्रशंसा की थी। साथ ही, वे भीड़ द्वारा हत्या (मॉब लिंचिंग) और उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट के आदेशों के बावजूद बुलडोजर चलाने की कार्रवाइयों तंज कर रहे थे। यह भी सवाल है कि क्या बीजेपी के कुछ नेताओं की टिप्पणियां नफरत फैलाने वाली नहीं हैं? फिर भी, उनके खिलाफ कार्रवाई संदिग्ध लगती है।
ऑपरेशन सिंदूर भारतीय सेना की एक महत्वपूर्ण सैन्य कार्रवाई थी, जो जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के जवाब में शुरू की गई थी। इस ऑपरेशन में भारतीय सेना की महिला अधिकारियों, कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और मीडिया ब्रीफिंग के दौरान इसकी जानकारी देश के सामने रखी थी।प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद, जो अशोका विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख हैं और समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता रह चुके हैं, ने इस ऑपरेशन को लेकर अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट की थी। उनकी पोस्ट में कहा गया था, “मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि इतने सारे दक्षिणपंथी टिप्पणीकार कर्नल सोफिया कुरैशी की सराहना कर रहे हैं, लेकिन शायद वो उतनी ही जोर से यह भी मांग कर सकते हैं कि भीड़ की ओर से हत्या, मनमाने ढंग से बुलडोजर चलाने और बीजेपी के नफरत फैलाने के शिकार अन्य लोगों को भारतीय नागरिकों के रूप में संरक्षित किया जाए।” पोस्ट के अंत में उन्होंने तिरंगे के साथ ‘जय हिंद’ लिखा था। इस पोस्ट को हरियाणा राज्य महिला आयोग और बीजेपी युवा मोर्चा के एक सदस्य ने आपत्तिजनक माना।आयोग की अध्यक्ष रेणु भाटिया ने इसे भारतीय सेना और विशेष रूप से महिला अधिकारियों के अपमान के रूप में देखा। इसके बाद, हरियाणा पुलिस ने प्रोफेसर खान के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152, 196, 197, 299, और 353 के तहत दो अलग-अलग मामले दर्ज किए। इन धाराओं में देश की संप्रभुता को खतरे में डालने, धार्मिक आधार पर दुश्मनी फैलाने, और सार्वजनिक शरारत जैसे गंभीर आरोप शामिल थे, जो गैर-जमानती हैं।
गिरफ्तारी और विवाद: हरियाणा पुलिस पर सवाल18 मई 2025 को हरियाणा पुलिस ने प्रोफेसर अली खान को दिल्ली के ग्रेटर कैलाश इलाके से गिरफ्तार किया। पुलिस ने उन्हें दो दिन की रिमांड पर लिया और बाद में सोनीपत की एक स्थानीय अदालत ने 20 मई को उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया। इस गिरफ्तारी ने देशभर में व्यापक विवाद को जन्म दिया। कई शिक्षाविदों, लेखकों, और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार दिया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (जेएनयूटीए) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने उनकी तत्काल रिहाई की मांग की।
AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इस कार्रवाई को ‘कानूनी उल्लंघन’ बताया और कहा कि प्रोफेसर की पोस्ट न तो राष्ट्रविरोधी थी और न ही महिला विरोधी। उन्होंने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार दिया। तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा ने भी इस गिरफ्तारी की निंदा की और कहा कि वे इसके खिलाफ अदालत का रुख करेंगी।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप: अंतरिम जमानत और SIT का गठन
प्रोफेसर अली खान के वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर उनकी गिरफ्तारी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन बताया। सिब्बल ने तर्क दिया कि एफआईआर बिना पर्याप्त आधार के दर्ज की गई थी और प्रोफेसर की पोस्ट को गलत समझा गया। उन्होंने कहा कि यह पोस्ट देशभक्ति को दर्शाती थी और इसका उद्देश्य किसी का अपमान करना नहीं था।21 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई की और प्रोफेसर अली खान को अंतरिम जमानत दे दी। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि मामले की गहन जांच के लिए तीन सदस्यीय विशेष जांच दल (SIT) का गठन किया जाए। जस्टिस सूर्यकांत ने सुनवाई के दौरान टिप्पणी की, “प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन जब देश चुनौतियों से जूझ रहा हो और सिविलियनों पर हमला हो रहा हो, तब इस तरह की संवेदनशील टिप्पणियों की क्या जरूरत थी?”
अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी की चुप्पी: सवालों के घेरे में
इस पूरे मामले में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की चुप्पी ने कई सवाल खड़े किए हैं। प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद, जो लखनऊ के एक प्रतिष्ठित रजवाड़ा परिवार से ताल्लुक रखते हैं और समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता रह चुके हैं, को इस मामले में पार्टी की ओर से कोई खुला समर्थन नहीं मिला।कई विश्लेषकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि अखिलेश यादव ने इस मामले में निष्क्रियता दिखाई, जो उनकी राजनीतिक रणनीति पर सवाल उठाती है। समाजवादी पार्टी, जो हमेशा से सामाजिक न्याय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करती रही है, इस मामले में चुप रही। कुछ लोगों का कहना है कि यह उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ताकि वे धार्मिक या सांप्रदायिक मुद्दों से दूरी बनाए रखें। हालांकि, इस चुप्पी ने उनके समर्थकों और प्रोफेसर अली खान के पक्षधरों में निराशा पैदा की है।
हरियाणा पुलिस और महिला आयोग की भूमिका: विवादों में
हरियाणा पुलिस और राज्य महिला आयोग की इस मामले में भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठे हैं। हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्ष रेणु भाटिया ने प्रोफेसर की पोस्ट को सेना और विशेष रूप से महिला अधिकारियों के अपमान के रूप में लिया। उन्होंने डीजीपी को पत्र लिखकर एफआईआर दर्ज करने के निर्देश दिए। हालांकि, कई लोगों ने आयोग के इस कदम को जल्दबाजी और पक्षपातपूर्ण बताया। प्रोफेसर खान ने नोटिस के जवाब में कहा था कि उनकी टिप्पणी को गलत समझा गया और आयोग के पास इस मामले में कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।हरियाणा पुलिस पर भी आरोप लगे कि उसने बिना पर्याप्त जांच के प्रोफेसर को गिरफ्तार किया। सोनीपत पुलिस की ओर से कथित लापरवाही के कारण एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का तबादला भी किया गया। कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों ने इसे पुलिस द्वारा उत्पीड़न का मामला बताया और मांग की कि भविष्य में ऐसी कार्रवाइयों से पहले गहन जांच की जाए
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पुलिस उत्पीड़न: एक बड़ा सवाल
इस मामले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पुलिस के दुरुपयोग जैसे मुद्दों को फिर से चर्चा में ला दिया है। प्रोफेसर अली खान की पोस्ट को कई लोगों ने सामान्य सामाजिक टिप्पणी माना, जिसमें कुछ भी आपराधिक या सांप्रदायिक नहीं था। 1,100 से अधिक शिक्षाविदों, लेखकों, और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने उनकी रिहाई की मांग करते हुए कहा कि यह गिरफ्तारी निराधार और लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करने वाली थी।कई लोगों का मानना है कि पुलिस और सरकारी संस्थानों का इस तरह का दुरुपयोग उन लोगों को निशाना बनाने के लिए किया जाता है, जो सत्तारूढ़ दल की विचारधारा से असहमत होते हैं। इस मामले में प्रोफेसर खान को कथित तौर पर ‘फर्जी धाराओं’ के तहत जेल में डाला गया, जिसे कई लोग उत्पीड़न का एक रूप मानते हैं।
भविष्य के लिए सबक: पुलिस सुधार और कानूनी जवाबदेही
यह मामला न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक महत्वपूर्ण चर्चा का विषय है, बल्कि यह पुलिस सुधार और कानूनी जवाबदेही की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है। कई विशेषज्ञों का कहना है कि पुलिस को किसी भी कार्रवाई से पहले गहन जांच करनी चाहिए और बिना ठोस सबूतों के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं करना चाहिए। इस मामले में हरियाणा पुलिस की जल्दबाजी और महिला आयोग की एकतरफा कार्रवाई ने कई सवाल खड़े किए हैं।सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने न केवल प्रोफेसर अली खान को राहत दी है, बल्कि यह भी संदेश दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, जिसे बिना ठोस आधार के दबाया नहीं जा सकता। कोर्ट द्वारा SIT के गठन का फैसला इस मामले की निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
एक जीत, लेकिन सवाल बाकी
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को सुप्रीम कोर्ट से मिली अंतरिम जमानत निश्चित रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में एक बड़ी जीत है। हालांकि, इस मामले ने कई गंभीर मुद्दों को उजागर किया है, जैसे पुलिस का दुरुपयोग, सरकारी संस्थानों की जवाबदेही, और राजनीतिक नेताओं की चुप्पी। अखिलेश यादव की निष्क्रियता ने उनके नेतृत्व और समाजवादी पार्टी की विचारधारा पर सवाल उठाए हैं। साथ ही, यह मामला यह भी दर्शाता है कि किस तरह जल्दबाजी में लिए गए फैसले और बिना जांच के कार्रवाइयां किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा सकती हैं।भविष्य में, ऐसी घटनाओं से बचने के लिए पुलिस और अन्य संस्थानों को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाना होगा। साथ ही, समाज को यह सुनिश्चित करना होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों का हनन न हो। यह मामला न केवल प्रोफेसर अली खान की व्यक्तिगत जीत है, बल्कि यह उन सभी लोगों के लिए एक प्रेरणा है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों और न्याय के लिए लड़ रहे हैं।