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न्याय की आस में टूटता विश्वास, पुलिस की मनमानी और कानून का दुरुपयोग

जकी भारतीय

लखनऊ, 16 अप्रैल। आज हम उन पीड़ितों की आवाज उठा रहे हैं, जिनके दिल की बात उनकी जुबान पर तो आती है, लेकिन सरकार तक नहीं पहुंचती। हम बात कर रहे हैं उन लोगों की, जिन्हें मारपीट का शिकार होने के बाद भी न्याय के बजाय अन्याय सहना पड़ता है। हमलावर पुलिस को रिश्वत देकर न सिर्फ बच निकलते हैं, बल्कि पीड़ित पर ही झूठी धाराओं में मुकदमा दर्ज करवाकर समझौते का दबाव बनवाते हैं। ऐसी व्यवस्था में पारदर्शिता की कमी साफ दिखती है।केंद्र सरकार ने मुस्लिम वक्फ संशोधन बिल पास कर बोर्ड में पारदर्शिता लाने की कोशिश की है, जो सराहनीय है। ठीक उसी तरह पुलिस और अन्य विभागों में भी पारदर्शिता लाने के लिए कदम उठाने की जरूरत है। पुलिस वह विभाग है, जिससे आम जनता को न्याय की उम्मीद होती है। लेकिन जब यही विभाग पीड़ित को न्याय देने में नाकाम हो, तो न्यायपालिका और पुलिस की साख पर सवाल उठना लाजमी है।

धारा 323, 504, 506 और पुलिस की मनमानी

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली भारतीय दंड संहिता (IPC) और दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) पर आधारित है। IPC की धारा 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना), 504 (जानबूझकर अपमान), और 506 (आपराधिक धमकी) ऐसी धाराएं हैं, जिनके तहत मारपीट, अपमान या धमकी के मामलों में FIR दर्ज होती है। लेकिन इन धाराओं का दुरुपयोग और पुलिस की निष्पक्षता की कमी पीड़ितों के लिए बड़ा संकट बन रही है।

धारा 323

मामूली चोट के लिए एक साल तक की सजा। यह संज्ञेय और जमानती अपराध है। लेकिन गंभीर चोटों (जैसे लाठी-डंडों से हमला) को भी पुलिस अक्सर यही धारा लगाकर अपराध की गंभीरता को कम करती है।

धारा 504

अपमान और शांति भंग के लिए दो साल तक की सजा। यह गैर-संज्ञेय है, लेकिन धारा 323 के साथ जोड़ने पर मामला संज्ञेय बन जाता है।

धारा 506

धमकी के लिए दो साल तक की सजा, और गंभीर धमकी के लिए सात साल तक। इसकी अस्पष्ट परिभाषा दुरुपयोग को बढ़ावा देती है।

पुलिस की दोहरी FIR की प्रथा

मारपीट के मामलों में पुलिस अक्सर दोनों पक्षों के खिलाफ धारा 323, 504, और 506 के तहत FIR दर्ज करती है, भले ही एक पक्ष स्पष्ट रूप से पीड़ित हो। उदाहरण के तौर पर, अगर कोई व्यक्ति लाठी-डंडों से पीटा जाता है और वह शिकायत दर्ज कराता है, तो हमलावर पक्ष भी काउंटर FIR दर्ज करवा देता है। पुलिस दोनों पक्षों को गिरफ्तारी की धमकी देकर समझौते के लिए मजबूर करती है। यह न केवल कानून का दुरुपयोग है, बल्कि पीड़ित को न्याय से वंचित करता है।

कमियां,दुरुपयोग और गलत धारा का इस्तेमाल

लाठी-डंडों से हमले जैसे गंभीर मामलों में धारा 325 या 307 के बजाय धारा 323 लगाई जाती है, जिससे अपराध की गंभीरता कम हो जाती है।

अस्पष्टता

धारा 504 और 506 की परिभाषा में स्पष्टता की कमी के कारण झूठी शिकायतें आसानी से दर्ज हो जाती हैं।

पुलिस की निष्पक्षता की कमी

रिश्वत, राजनीतिक दबाव या प्रभावशाली पक्ष के दबाव में पुलिस हमलावर का पक्ष लेती है। मेडिकल रिपोर्ट और चश्मदीद गवाहों को नजरअंदाज किया जाता है।

सुप्रीम कोर्ट के अर्णेश कुमार जजमेंट (2014) के बावजूद, पुलिस छोटे अपराधों में भी गिरफ्तारी की धमकी देती है। मारपीट के शिकार व्यक्ति को न सिर्फ शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ता है, बल्कि उसे कानूनी प्रक्रिया में भी अन्याय का सामना करना पड़ता है। यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट ने डी.के. बसु जजमेंट में जांच और गिरफ्तारी में पारदर्शिता पर जोर दिया, लेकिन यह निर्देश जमीन पर लागू नहीं हो रहे।

सुधार के लिए सुझाव

धारा 323 में संशोधन
चोट की गंभीरता के आधार पर सजा निर्धारित हो। गंभीर मामलों में धारा 325 या 326 लागू हो।

धारा 323 को गैर-संज्ञेय बनाना

इससे पुलिस का दुरुपयोग कम होगा।CrPC और IPC के प्रावधानों पर पुलिस को प्रशिक्षित किया जाए। IPC की धारा 182 या 211 के तहत झूठी शिकायत करने वालों पर कार्रवाई हो।मेडिकल रिपोर्ट, CCTV फुटेज, और गवाहों को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाए। जमानती अपराधों के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट बनाए जाएं। यही नहीं पीड़ितों को अनुच्छेद 39A के तहत मुफ्त कानूनी सहायता भी प्रदान की जाए।

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