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लखनऊ में मशहूर सहाफी ताहिर अब्बास की याद में हुआ महफ़िल-ए- मुशायरा का आयोजन
लखनऊ, 3 नवंबर। अपने कलम का लोहा मनवाने वाले, सच का साथ देने वाले और अवाम के दर्द को समझकर उसे कागज़ पर उतारने वाले मशहूर व मारूफ़ सहाफी (पत्रकार) ताहिर अब्बास की याद में लखनऊ के गोलागंज मकबरे में स्थित मसर्रत लखनवी के घर पर एक यादगार महफ़िल-ए-मुशायरा का आयोजन कल 2 नवंबर (रविवार) को शाम 7:30 बजे किया गया। इस प्रोग्राम का संचालन मशहूर शायर नय्यर मजीदी साहब ने किया, जबकि सदारत (अध्यक्षता) डॉ. अनीस अशफ़ाक़ साहब ने की। महफ़िल में शहर के नामी गिरामी शायरों ने अपनी ग़ज़लों से समां बांधा और ताहिर अब्बास की निष्पक्ष व निर्भीक पत्रकारिता को याद किया। श्रोता गणों ने शायरों का तालियों की गड़गड़ाहट और वाह-वाह की सदाओं से स्वागत किया। मुशायरे में तालियां और वाह वाह की सदाएं गूंजती रहीं, श्रोतागण शायरों की प्रशंसा कर लखनऊ की ज़बान और अदब की ज़िंदा मिसाल पेश कर रहे थे।
मुशायरे की शुरुआत से पहले डॉ. अनीस अशफ़ाक़ साहब ने अपनी तकरीर में महफ़िल ए मुशायरा को संबोधित करते हुए ताहिर अब्बास की निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता पर रोशनी डाली। उन्होंने कहा, “ताहिर अब्बास से मैं बहुत करीब था और जितना मैं उन्हें जानता हूं, शायद उतना उन्हें कोई और नहीं जानता। मेरा रोज़ उनका साथ था। कभी वे मुझे अपनी जगह बुलाते थे, कभी हम उन्हें बुलाकर गुफ़्तगू करते थे। वे शायर तो नहीं थे, लेकिन उनकी समझ यह बताती थी कि वे बेहतरीन समझ के मालिक थे। उनका अरमान था कि एक ऐसा अख़बार शुरू हो जो निष्पक्ष और निर्भीक होकर जनता के हितों को उजागर करे। इसलिए उन्होंने अपने छोटे भाई अमान अब्बास के माध्यम से उर्दू सहाफ़त में कदम रखा और ‘सहाफ़त’ टाइटल से शानदार अख़बार का आग़ाज़ किया, जिसमें सच के ज़रिए लोगों की इमदाद की गई।” डॉ. अशफ़ाक़ ने आगे कहा कि अमान अब्बास ने समझदारी से इस अख़बार को बुलंदियों पर पहुंचाया और आज हिंदुस्तान के कोने-कोने में ताहिर अब्बास का ख़्वाब पहुंच चुका है।
डॉक्टर अनीस अशफाक ने आखिर में ताहिर अब्बास के साथ-साथ पुराने लखनऊ की ज़बान पर चर्चा की। उन्होंने मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर जैसे शायरों का ज़िक्र करते हुए कहा कि उनकी शायरी सुनकर लखनऊ की ख़ास ज़बान का एहसास होता था। उन्होंने शारिब लखनवी, निहाल लखनवी सहित कई पुराने शायरों की प्रशंसा की। डॉ. अनीस अशफ़ाक़ अदब की दुनिया में एक बड़ा नाम हैं। उन्होंने मेहनत से लखनऊ में पढ़ाई की, पीएचडी के बाद नौकरी हासिल की और लखनऊ यूनिवर्सिटी में बड़े पद पर कार्यरत रहे। एक दौर में वे उर्दू विभाग के हेड भी रहे और आज उर्दू अदब में उनका नाम सम्मान से लिया जाता है। डॉक्टर अनीस अशफाक की तकरीर के बाद मुशायरा शुरू हुआ। संचालन कर रहे नय्यर मजीदी ने अपने ख़ास अंदाज़ में निज़ामत के फ़राएज़ अंजाम दिए।
उन्होंने मुशायरे की शुरुआत आरिफ़ अकबराबादी से की। आरिफ़ साहब ने अपनी ग़ज़ल से महफ़िल को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनके इस मतले को खूब सराहा गया,
हर एक दिन नई दुनिया बसाई जाती है।
और एक मौत है जो सर पा आई है।।
श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया, वाह-वाह की सदाएं गूंजीं और महफ़िल में समां बंध गया।
इनके बाद मसर्रत लखनवी ने ताहिर अब्बास साहब की शान में एक नज़्म पेश की ।
जिसके दो शेर श्रोताओं ने खूब सराहे।
बशर बशर के दुखों में वो काम आते थे।
मोहब्बतों का समंदर थे ताहिर ए अब्बास।।
वो जिसने बज़्म ए सहाफत को जिंदगी दी है।
साहफियों का मुकद्दर थे ताहिर ए अब्बास।
इसके बाद तनवीर बहराइची ने अपनी अलग पहचान वाली ग़ज़लों से महफ़िल को मेराज पर पहुंचा दिया:
तनवीर बहराइची:
थकन से चूर है जिस्म ओ दिमाग़ सो जाओ।
चलो बुझा भी दो अब ये चराग़ सो जाओ।।
तालियां थमने का नाम नही ले रहीं, श्रोता मंत्रमुग्ध होकर क्लैपिंग करते रहे।
फिर ज़की भारती ने अपनी ग़ज़ल पेश की:
ज़की भारती:
ऐ खुदा मेरी तमन्नाओं का क़द कम कर दे।
मैं हूं खुद्दार तो रहने भी दे खुद्दार मुझे।।
उनके इस शेर पर महफ़िल में फिर तालियों की बौछार हुई, लोग वाह-वाह करते नहीं थक रहे थे।
हबीब शराबी ने समां को और गहरा किया:
हबीब शराबी:
क्यों ऐक ऐक फूल परेशां है दोस्तों।
देखो चमन का कौन निगेहबां है दोस्तों।
अब मौत मांगने से कोई फायदा नहीं।
खुद जिंदगी से मौत पशेमां है दोस्तों।।
फरीद मुस्तफा:
दिया है फन जो मुझे तूने शेर गोई का।
तो मेरे तर्ज़ ए सुखान को भी कुछ मआनी दे।।
जदीदियत की ज़ुलैखा मेरे मुक़ाबिल है।
तू मेरी फिक्र की यूसुफ की नौजवानी दे।।
उनके इन चार मिसरो से तालियां और वाह-वाह की गूंज से महफ़िल जीवंत हो उठी।
मुजीब सिद्दीकी :
तारे नफ़्स ए हस्तिये मुबहम टूटा।
बेदार हुए ख़्वाब का आलम टूटा।।
वो वक़्त ए रज़ा आ गया वादे प मुजीब।
जिस दम उसे देखा तो मेरा दम टूटा।।
इनके बाद फय्याज़ लखनवी ने भी अपनी ग़ज़लों का जलवा बिखेरा। उन्होंने जैसे ही ये मतला
मैं तुझसे मिला हूं तेरे किरदार से पहले।
दीवार मिली साया ए दीवार से पहले।।
पढ़ा श्रोताओं ने जमकर प्रशंसा की।
फय्याज लखनवी के बाद मशहूर शायर जावेद बरकी ने अपनी ग़ज़ल से भी लोगों को प्रभावित किया।
उन्होंने ने जैसे ही ये मतला पढ़ा,
इस इंतिखाब को करता हूं मैं सलाम ग़ज़ल।
वो जिस किसी ने भी रखा है तेरा नाम ग़ज़ल।।
श्रोतागण खुश हो गए और खूब प्रशंसा की।
इनके बाद सीनियर सहाफी और उस्ताद शायर नासिर ज़रवली ने ग़ज़ल पेश की:

नासिर ज़रवली:
आइने को किसी से क्या लेना देना।
आईना कभी झूठ नहीं कहता है।।
उनका ये मतला दिल में उतर गया।
श्रोता क्लैपिंग करते नहीं थके।
नय्यर मजीदी ने खुद अपनी ग़ज़ल से समां बांधा और पहले मतले ने ही ये साबित कर दिया कि ओल्ड इज़ गोल्ड ही होता है।
उनके इस मतले
वो जिस दरख़्त के साए में सबका डेरा था।
उसी को धूप ने चारों तरफ से घेरा था।।
पर मुशायरे को मेअराज पर पहुंचा दिया। जिसके बाद मेअराज पर पहुंचे इस मुशायरे को जर्रार अकबराबादी ने जमीन पर नहीं आने दिया। उन्होंने कई ग़ज़लें सुनाई और क़तात पेश किए ,लेकिन ये चार मिसरे खूब सराहे गए।

हल्क़ पर मेरे ये शमशीर किसी और की है।
ख़्वाब मेरा सही ताबीर किसी और की है।।
ये जो रखी है मेरी मेज़ पा मेरी तस्वीर।
अब ये लगता है ये तस्वीर किसी और की है।।
श्रोताओं ने खड़े होकर तालियां बजाईं, वाह-वाह की सदाएं लंबे समय तक गूंजती रहीं। हर शायर के बाद महफ़िल में जोश की लहर दौड़ जाती, लोग मंत्रमुग्ध होकर क्लैपिंग करते और तालियां बजाते, जो लखनऊ की अदबी विरासत की ज़िंदा तस्वीर पेश कर रही थीं।
मुशायरे का समापन डॉक्टर अनीस अशफाक की ग़ज़ल के बाद हुआ। उन्होंने दो ग़ज़लों को पेश किया जिसमें एक ग़ज़ल कोरोना के दौर में कही गई थी।
इस ग़ज़ल के एक ही मतले..
ये सांस चल रही है फिर भी मर रहा हूं रात दिन।
मैं कौन से अज़ाब से गुज़र रहा हूं रात दिन।।
ने मुशायरे को अर्शे उला पर पहुंचा दिया। सदारत कर रहे डॉ. अनीस अशफ़ाक़ ने तकरीर में कहा, “शायरों को सुनने के बाद खुशी हो रही है कि लखनऊ की ज़बान अभी बाक़ी है।” उन्होंने जहां अमान अब्बास (ताहिर अब्बास के छोटे भाई) की तारीफ़ की, वहीं उन्होंने एक बार फिर अपने दोस्त ताहिर अब्बास की प्रशंसा की। उन्होंने ने कहा,मरहूम सच्चाई लिखने की हिम्मत रखते थे, 15-15 पेज के लेख एक बैठक में लिखने की क्षमता और जनता के हितों की लड़ाई में माहिर थे।
अमान अब्बास ने भी शुरुआती तकरीर में शायरों और श्रोतागणों का शुक्रिया अदा किया। अंत में सबका धन्यवाद देते हुए महफ़िल खत्म हुई। यह आयोजन ताहिर अब्बास की याद को ज़िंदा रखने और उर्दू अदब को बढ़ावा देने की मिसाल बना।
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