जकी भारतीय
लखनऊ,12 अप्रैल। हाल के वर्षों में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के तहत 100 साल से अधिक पुरानी संपत्तियों को संरक्षित स्मारकों के रूप में घोषित करने की प्रक्रिया ने देश भर में कई सवाल खड़े किए हैं। विशेष रूप से, वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 ने वक्फ बोर्ड की संपत्तियों, जैसे मस्जिदों, दरगाहों और कब्रिस्तानों का प्रबंधन और देखरेख सीधे ASI के हवाले कर दी है। इस कानून ने वक्फ बोर्ड के अधिकारों को लगभग समाप्त कर दिया है, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या उत्तर प्रदेश के हिंदू धार्मिक स्थलों, जैसे अयोध्या का राम मंदिर, काशी का विश्वनाथ मंदिर, या मथुरा के प्राचीन मंदिरों पर भी ऐसा ही कड़ा कानून लागू होगा? क्या इन पवित्र स्थलों का प्रबंधन भी निजी ट्रस्टों या समुदायों से छीनकर ASI के नियंत्रण में दे दिया जाएगा?
इस खबर में इस मुद्दे पर गहराई से चर्चा की गई है, साथ ही ASI की स्थापना और इसके मूल उद्देश्य पर भी प्रकाश डाला गया है।
पुरातत्व विभाग की स्थापना और इसका मूल उद्देश्य
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की स्थापना 1861 में ब्रिटिश शासनकाल में हुई थी, जिसका प्राथमिक उद्देश्य भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों का संरक्षण करना था। प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 (AMASR Act) ने ASI को और मजबूत कानूनी आधार प्रदान किया। इस कानून की धारा 3 और धारा 4 के तहत, 100 साल से अधिक पुरानी इमारतों, मंदिरों, मस्जिदों, या अन्य संरचनाओं को “राष्ट्रीय महत्व का स्मारक” घोषित किया जा सकता है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं था कि ASI इन संपत्तियों का मालिक बन जाए।
ASI का काम था संरक्षण और रखरखाव:
धारा 13 के तहत, ASI को यह सुनिश्चित करना था कि राष्ट्रीय धरोहरें, जैसे प्राचीन मंदिर, मस्जिदें, या किले, नष्ट न हों, उनकी मरम्मत हो, और उनका मूल स्वरूप बना रहे।
धारा 14 और धारा 20 के तहत, संरक्षित स्मारकों के 100 मीटर के दायरे में कोई नया निर्माण बिना ASI की अनुमति के नहीं हो सकता।
धार्मिक प्रथाओं का सम्मान
धारा 16 स्पष्ट कहती है कि यदि कोई स्मारक पूजा स्थल के रूप में उपयोग में रहा है, तो उसकी धार्मिक प्रथाएँ जारी रह सकती हैं, बशर्ते वे संरक्षण में बाधा न डालें।
ASI का उद्देश्य कभी भी धार्मिक स्थलों का प्रबंधन या उनकी दैनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करना नहीं था। इसका काम केवल यह सुनिश्चित करना था कि ये धरोहरें भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रहें। उदाहरण के लिए, यदि कोई मंदिर या मस्जिद 100 साल पुरानी है, तो वह राष्ट्र की धरोहर है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ASI उसका मालिक बन जाए।
मरम्मत, और संरक्षण तक सीमित थी ASI की भूमिका
फिर भी, हाल के कानूनों ने ASI को ऐसी शक्तियाँ दी हैं, जो इसके मूल उद्देश्य से परे हैं। वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 ने 100 साल से अधिक पुरानी वक्फ संपत्तियों, जैसे मस्जिदों, दरगाहों, कर्बलाओं, और कब्रिस्तानों, को ASI के तहत संरक्षित स्मारकों के रूप में घोषित कर दिया है। इस कानून की धारा 3(क) और धारा 40(ख) में संशोधन के बाद, वक्फ बोर्ड का इन संपत्तियों पर स्वामित्व और प्रबंधन का अधिकार लगभग समाप्त हो गया है। अब इनकी देखरेख, रखरखाव, और संरक्षण का जिम्मा पूरी तरह ASI पर है। सबसे विवादास्पद प्रावधान यह है कि धार्मिक गतिविधियों, जैसे नमाज़, उर्स, या कब्रिस्तान में दफन के लिए भी ASI से अनुमति लेना अनिवार्य है।
यह प्रावधान धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला है
संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत, हर समुदाय को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन का अधिकार है। लेकिन ASI का यह हस्तक्षेप धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है।
ASI के पास न तो इतने कर्मचारी हैं और न ही धार्मिक प्रथाओं की गहरी समझ है कि वह हर दरगाह में उर्स या हर मस्जिद में नमाज़ की अनुमति दे सके। क्या यह व्यवस्था व्यवहार में चल पाएगी?
वक्फ संपत्तियाँ धार्मिक और सामुदायिक उद्देश्यों के लिए समर्पित होती हैं। इनमें से अधिकांश, चाहे 100 साल पुरानी हों या 200 साल, धार्मिक गतिविधियों के लिए ही बनाई गई थीं। फिर इन गतिविधियों के लिए ASI की अनुमति क्यों?
इस कानून की हो रही है इसलिए आलोचना
क्योंकि यह वक्फ बोर्ड की निजी संपत्तियों को भी ASI के हवाले कर देता है। कई बार लोग अपनी निजी जमीन या इमारत को वक्फ में दान करते हैं, और वक्फ बोर्ड इसे धार्मिक उद्देश्यों के लिए दर्ज करता है। लेकिन अब यह कहा जा रहा है कि ऐसी संपत्तियाँ, अगर 100 साल पुरानी हैं, तो ASI के नियंत्रण में चली जाएँगी। यह न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि निजी संपत्ति के अधिकारों का भी हनन करता है।
हिंदू धार्मिक स्थलों पर क्या होगा असर?
उत्तर प्रदेश में, कई हिंदू धार्मिक स्थल, जैसे काशी विश्वनाथ मंदिर, अयोध्या का राम मंदिर, और मथुरा के केशवदेव मंदिर, ASI के तहत संरक्षित स्मारक हैं। AMASR Act की धारा 4 के तहत, ये राष्ट्रीय महत्व के स्मारक हैं, और इनका रखरखाव ASI करता है। लेकिन वक्फ संपत्तियों की तरह, अगर इन हिंदू मंदिरों का प्रबंधन भी पूरी तरह ASI को सौंप दिया गया, तो कई गंभीर सवाल उठेंगे। हालांकि ये क़ानून सिर्फ मुस्लिम वक़्फ़ की ऐतिहासिक इमारतों के लिए लाया गया है,न कि हिंदू ऐतिहासिक इमारतों के लिए।
इसीलिए मंदिरों का दैनिक प्रबंधन, जैसे पूजा, उत्सव, और दान का हिसाब, अभी ट्रस्टों और स्थानीय समुदायों के पास है। अगर ASI यह अधिकार छीन लेता है, तो मंदिरों की व्यवस्था कौन संभालेगा? क्या ASI हर मंदिर में अपने कर्मचारियों को नियुक्त करेगा?
क्या गंगा आरती, कांवड़ यात्रा, या दीपोत्सव जैसे आयोजनों के लिए ASI की अनुमति देगा?
सरकार ने यह कानून सिर्फ मुस्लिम वक़्फ़ संपत्तियों के लिए बनाया है तो, क्या उसकी नजरों में हिंदू ऐतिहासिक संपत्तियां,क्रिश्चियन के गिरजाघर और गुरुद्वारे आदि नजर नहीं आ रहे थे ?यदि हां तो उसको यह कानून सभी धर्म के लिए बराबर से लाना चाहिए था। इसलिए यह कानून मुसलमान के साथ भेदभाव किए जाने और उनकी वक़्फ़ संपत्तियों को छीने जाने का कारण बन रहा है ।
यदि ये क़ानून हिंदुओं की धार्मिक संपत्तियों के लिए भी होता तो मंदिरों में पुजारी, व्यवस्थापक, और अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति कौन करता? क्या ASI इसके लिए कोई नया ढांचा बनाता, या स्थानीय समुदायों को कोई अधिकार नहीं रहता?
सुप्रीम कोर्ट में इन बिंदुओं के आधार पर दी जा सकती है चुनौती
धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन
संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत, हर समुदाय को अपने धार्मिक स्थलों के प्रबंधन का अधिकार है। ASI का धार्मिक गतिविधियों पर नियंत्रण इस अधिकार का हनन है।
ASI के अधिकारों का दुरुपयोग
AMASR Act की धारा 13, 14, और 16 ASI को केवल संरक्षण और रखरखाव का अधिकार देती हैं, न कि धार्मिक गतिविधियों या प्रबंधन का। नया कानून ASI को उसके मूल उद्देश्य से परे शक्तियाँ देता है।
निजी संपत्ति का हनन
वक्फ संपत्तियाँ निजी दान से बनी हैं। इन्हें ASI के हवाले करना संविधान के अनुच्छेद 300A (संपत्ति का अधिकार) का उल्लंघन है।
ASI के पास न तो संसाधन हैं और न ही विशेषज्ञता कि वह हर मस्जिद, या दरगाह की धार्मिक गतिविधियों को नियंत्रित कर सके। यह कानून व्यवहार में लागू नहीं हो सकता।
धार्मिक भावनाओं की अनदेखी
धार्मिक स्थल केवल ऐतिहासिक इमारतें नहीं, बल्कि आस्था के केंद्र हैं। इनके प्रबंधन में स्थानीय समुदायों की भागीदारी जरूरी है, जिसे यह कानून नजरअंदाज करता है।
हम मान लेते हैं, वक्फ संपत्तियों की गलत रजिस्ट्री का मसअला भी चर्चा का विषय है । कई मामलों में, निजी संपत्तियों को गलत तरीके से वक्फ में दर्ज किया गया। लेकिन इसका समाधान ASI को नियंत्रण देना नहीं, बल्कि वक्फ बोर्ड की रजिस्ट्री प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना है।
सुप्रीम कोर्ट इन बिंदुओं पर विचार कर सकता है और यह मान सकता है कि यह कानून न केवल असंवैधानिक है, बल्कि सामाजिक और धार्मिक सौहार्द के लिए भी खतरा है।
यह कानून क्यों है गलत?
ASI का दायरा सीमित होना चाहिए: ASI का काम संरक्षण तक सीमित है—मरम्मत और यह सुनिश्चित करना कि कोई नया निर्माण धरोहर को नुकसान न पहुँचाए। धार्मिक गतिविधियों को नियंत्रित करना इसका काम नहीं है।
ध्यान देने योग्य बात ये है कि मस्जिद और दरगाहें केवल ऐतिहासिक इमारतें नहीं, बल्कि आस्था के केंद्र हैं। इनके लिए धार्मिक गतिविधियाँ अनिवार्य हैं, और इन्हें अनुमति की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
नौकरशाही का बोझ
ASI जैसे नौकरशाही तंत्र को धार्मिक प्रबंधन का जिम्मा देना अव्यावहारिक है। यह न केवल धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाएगा, बल्कि सामुदायिक भागीदारी को भी खत्म करेगा।
इस तरह के कानून हिंदू, मुस्लिम, और अन्य समुदायों में असंतोष पैदा कर सकते हैं, जिससे सामाजिक सौहार्द को नुकसान होगा।
वक्फ संपत्तियों पर लागू नया कानून ASI को उसकी मूल भूमिका से परे शक्तियाँ देता है। ASI की स्थापना धरोहरों के संरक्षण के लिए हुई थी, न कि मंदिरों, मस्जिदों, या दरगाहों की धार्मिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए। यह कानून न केवल धार्मिक स्वतंत्रता और निजी संपत्ति के अधिकारों का हनन करता है, बल्कि अव्यावहारिक और सामाजिक रूप से हानिकारक भी है।
सुप्रीम कोर्ट में इस कानून को चुनौती देकर इसे रद्द किया जा सकता है, क्योंकि यह संविधान और धार्मिक भावनाओं के खिलाफ है। जरूरत है एक ऐसे ढांचे की, जो संरक्षण और आस्था के बीच संतुलन बनाए, न कि एकतरफा नियंत्रण थोपे।