HomeArticleकश्मीरी मोहल्ले की वो पुरानी गलियाँ और बिखरता भाईचारा

कश्मीरी मोहल्ले की वो पुरानी गलियाँ और बिखरता भाईचारा

कश्मीरी मोहल्ले की वो पुरानी गलियाँ और बिखरता भाईचारा

लेखक: जकी भारतीय

कश्मीरी मोहल्ला, लखनऊ। एक ऐसा नाम, जो मेरे दिल की गहराइयों में बस्ता है। वो गलियाँ, वो आँगन, वो लोग, जिनके साथ मेरा बचपन बीता, जवानी ने रंग भरे, और जो आज भी मेरी यादों में जिंदा हैं। लेकिन आज जब मैं उन गलियों की ओर देखता हूँ, तो मन में एक टीस उठती है। वो गलियाँ अब भी हैं, पर वो अपनापन, वो भाईचारा, वो प्यार धीरे-धीरे कहीं खो सा गया है। आज मैं एक पत्रकार के तौर पर नहीं, बल्कि उस मोहल्ले के एक बेटे के तौर पर अपनी बात कहना चाहता हूँ। यह मेरे दिल की आवाज़ है, जो उन पुरानी यादों को सहेजे हुए है और उस बदलते वक़्त पर अफ़सोस करती है, जिसने हिंदू-मुसलमान के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया।

वो सुनहरे दिन मेरा बचपन उसी मोहल्ले में गुज़रा, जहाँ मैं पैदा हुआ। कश्मीरी मोहल्ले में हमारा घर अकेला मुसलमानों का था। चारों तरफ़ हिंदू परिवार थे। पश्चिम में अग्रवाल साहब, जिनकी खरिया की फैक्ट्री थी और उनके तीन बेटे और दो बेटियाँ थीं। पूर्व में कैलाश नाथ शर्गा का घर था, जो हाईकोर्ट में जज थे। उनके तीन बेटे और एक बेटी थी—विनय, अर्जुन और उनके बड़े भाई, जो शिया डिग्री कॉलेज में लेक्चरर थे। अर्जुन खुद पायनियर अखबार में डेस्क इंचार्ज थे। उत्तर में किशन कुमार कौल और चांद नारायण कौल का परिवार रहता था। चांद नारायण के तीन बेटे और एक बेटी थी। सामने गली में सप्रू जी का घर था, उनके बराबर में राजीव कुलश्रेष्ठ का घर था, जो मेरा पक्का दोस्त था। प्रेम कुमार जायसवाल, अरुण, पंकज टिक्कू, सपन और अरविंद कुमार सिन्हा, जो आज हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट हैं और मेरे शिक्षक भी रहे—ये सब मेरे साथी, मेरे भाई, मेरे दोस्त थे।अरविंद सर न सिर्फ़ मेरे बड़े भाई की तरह थे, बल्कि उन्होंने मुझे गणित और हिंदी भी पढ़ाया था। जिस तरह मैं मिसिस सीज़र से इंग्लिश पढ़ने उनके घर जाता था, उसी तरह अरविंद सर के घर पर किताबें खोलकर बैठना, उनकी सिखाई वो आसान तरकीबें, और बीच-बीच में उनकी माँ के हाथ की खट्टी-मीठी चाय पीना—ये सब मेरे लिए अनमोल यादें हैं। थोड़ा आगे बढ़ें, तो कश्मीरी गर्ल्स कॉलेज की प्रिंसिपल मिसिस सीज़र का घर था, जो क्रिश्चियन थीं। उनके साथ इंग्लिश की क्लास में बिताए पल आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा हैं। कश्मीरी मोहल्ला ढाल पर एक और क्रिश्चियन परिवार और कश्मीरी पंडित नागू जी रहा करते थे। हमारा बचपन सिर्फ़ घरों और गलियों तक सीमित नहीं था। वो खेल, वो मस्ती, वो आज़ादी—सब कुछ हमारे जीवन का हिस्सा थी। हम फुटबॉल, क्रिकेट, कंचे, खो-खो, गिल्ली-डंडा, जूडो-कराटे खेलते वा सीखते थे। साइकिल पर मोहल्ले की सैर करना, पेड़ों के नीचे बैठकर गप्पें मारना, और दोस्तों के साथ हँसते-हँसते लोटपोट हो जाना—ये सब हमारी ज़िंदगी का रंग था। एक बार की बात है, राजीव और मैंने मिलकर क्रिकेट खेलते वक़्त पड़ोस के टिक्कू जी की खिड़की का शीशा तोड़ दिया था। डर के मारे हम दोनों भागे, लेकिन टिक्कू जी ने हमें पकड़कर सिर्फ़ हँसते हुए कहा, “अगली बार गेंद मेरे आँगन में फेंकना, शीशा मत तोड़ना।” उनकी वो हँसी आज भी मेरे कानों में गूँजती है।ये सारे नाम, ये सारी यादें मेरे लिए सिर्फ़ यादें नहीं, बल्कि एक ज़िंदगी हैं। हम सब एक-दूसरे के त्योहारों में इस तरह शामिल होते थे, जैसे वो हमारे अपने हों। हमारे घर में मज़लिस होती, तो मोहल्ले के सारे हिंदू भाई मजलिस में शिरकत करने आते। प्रेम कुमार जायसवाल तो बकायदा नौहा भी पड़ता था,मातम भी करता था। हम भी उनके अखंड रामायण, सुंदरकांड, होली, दीपावली में उसी जोश के साथ शामिल होते। तब न हिंदू था, न मुसलमान। तब सिर्फ़ इंसानियत थी, प्यार था, भाईचारा था।याद है, एक होली थी जब राजीव और मैंने मिलकर पूरे मोहल्ले को रंगों से सराबोर कर दिया था। अग्रवाल साहब की बेटी शालिनी दीदी ने हमें पकड़कर इतना रंग पोता कि हम दोनों कई दिन तक नीले-लाल बने रहे। हँसते-हँसते हमारी साँसें फूल गई थीं। और दीपावली की वो रातें, जब हम सब बच्चे मिलकर पटाखे जलाते, अनार की चमक में एक-दूसरे के चेहरों को देखकर ठहाके लगाते। वो मिठाइयाँ, वो गुझिया, जो हर घर से आती थी, उसका स्वाद आज भी मेरी ज़ुबान पर है।

वो बदलता वक़्त

ये सब ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सिर्फ़ 15-20 साल पहले की बात है। फिर न जाने क्या हुआ। धीरे-धीरे वो लोग, जिनके साथ हमारा बचपन बीता, जिन बहनों ने मेरी कलाई पर राखी बाँधी, जिनके साथ होली के रंग खेले, वो असुरक्षित महसूस करने लगे। पहले वर्मा जी ने अपना घर बेचा। जाते वक़्त उन्होंने कहा, “बेटा, तुम लोग तो हो, लेकिन अब हम सुरक्षित महसूस नहीं करते।” उनकी आँखों में नमी थी, और मेरी आँखों में भी आँसू तैर गए थे। फिर एक-एक कर कई परिवार मोहल्ला छोड़कर चले गए।हालांकि यह बात सच थी, सभी हिंदुओं के बीच में हमारा अकेला मुस्लिम घर था, लेकिन जहाँ से हमारे इन हिंदू भाइयों के घर खत्म होते थे, उसके चारों तरफ़ मुस्लिम परिवारों के घर भी थे। कई बार दंगे भी हुए, लेकिन तब दंगे हिंदू-मुसलमानों के बीच नहीं, बल्कि शिया-सुन्नी के बीच हुआ करते थे। उन दंगों का हमारे हिंदू भाइयों से कोई लेना-देना नहीं था। फिर भी, लोग धीरे-धीरे मोहल्ला छोड़कर जाने लगे। मकान खाली होते गए, और दूसरे लोग उन्हें खरीदते गए।आज भी गिरधारी लाल जी, बिंदु माथुर, चंद्रपाल जी ,चेतन और डॉक्टर मोहित के माता-पिता हमारे ही मोहल्ले में रहते हैं। राजा कौल साहब और कुछ अन्य हिंदू परिवार अब भी बचे हैं, लेकिन जो गए, उनकी कमी हर पल सताती है। विपिन सिन्हा, अनिल सिन्हा और अरविंद सिंहा जी से आज भी बात होती है। लेकिन रक्षाबंधन का वो त्योहार, जब मेरी कलाई पर राखियों की झड़ी लग जाती थी, अब सिर्फ़ याद बनकर रह गया। आज मेरी कलाई सूनी रहती है, और मन में एक खालीपन सा छा जाता है।कभी-कभी, जब मैं उन गलियों से गुज़रता हूँ, तो अनायास ही वो गाना मेरे होठों पर आ जाता है
“आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम गुज़रा ज़माना बचपन का…”। वो गलियाँ, जहाँ हम दौड़ते थे, छुपन-छुपाई खेलते थे, वो पेड़, जिसके नीचे बैठकर हम गप्पें मारा करते थे—सब कुछ तो है, पर वो लोग नहीं। वो हँसी नहीं। वो अपनापन नहीं।

कौन ज़िम्मेदार?

आज जब मैं देखता हूँ कि हिंदू-मुसलमान के बीच नफ़रत की खाई बढ़ती जा रही है, तो मन सवाल करता है—ये सब हुआ कैसे? 20 साल पहले तो ऐसा नहीं था। तब हम एक-दूसरे के घरों में बिना झिझक आते-जाते थे। तब धर्म नहीं, दिल बोलता था। लेकिन आज? आज लोग एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते। हिंदू को मुसलमान पर शक, मुसलमान को हिंदू पर शक। धर्म के नाम पर टिप्पणियाँ, नफ़रत भरे भाषण, और सियासी रोटियाँ सेंकने की होड़।इसके पीछे वो लोग हैं, जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए समाज को बाँटा। वो नेता, वो तथाकथित ठेकेदार, जिन्होंने नफ़रत का ज़हर फैलाया। वो पत्रकार, जो सच की जगह सनसनी बेचते हैं। वो सोशल मीडिया के सिपाही, जो एक-दूसरे के खिलाफ़ जहर उगलते हैं। ये वही लोग हैं, जिन्होंने मेरे कश्मीरी मोहल्ले का वो भाईचारा, वो प्यार छीन लिया।

आज का सच और बच्चों की दुनिया

आजकल शिक्षा के बोझ ने हमारे और आपके बच्चों को इतना व्यस्त कर दिया कि वे हमारी कहानियाँ सुनकर और पढ़कर खुश तो हो सकते हैं, लेकिन हमारी-आपकी ज़िंदगी को दोहराना उनके लिए बहुत मुश्किल है। मैंने यह लेख इसलिए लिखा, ताकि पहले तो कश्मीरी मोहल्ले के भाई और बहनें इसे पढ़ें और उन्हें यह एहसास हो कि हम एक-दूसरे को अभी तक भूले नहीं हैं। दूसरा, हमारे बच्चे इस लेख से आनंद लें और जानें कि “ऐसे भी दिन थे”।आज हमारे बच्चों के पास न तो इनडोर खेल खेलने का समय है, न ही आउटडोर खेलों का। इसका नतीजा यह है कि वे साइकिल चलाना और पैदल चलना भी भूल गए हैं। इसका असर यह हुआ कि वे अभी से शारीरिक और मानसिक रूप से कमज़ोर हो रहे हैं। हम लोग जहाँ फुटबॉल, क्रिकेट, कंचे, खो-खो, गिल्ली-डंडा, जूडो-कराटे सीखते और खेलते थे, वो सब उनके लिए अब सिर्फ़ कहानियाँ हैं। पढ़ाई ने उन्हें बाँध लिया, मजबूर कर दिया। खेल, जो शरीर और मन को आज़ाद करता है, उनके हिस्से में नहीं। मुझे उन पर तरस आता है। हमारे बचपन की वो आज़ादी, वो हँसी, वो दोस्ती—वो सब अब सपना सा लगता है। आज के बच्चे न तो उस मस्ती को सोच सकते हैं, न उस जोश को महसूस कर सकते हैं। उनके लिए बस किताबें हैं, कोचिंग हैं, और एक ऐसी दौड़, जो उन्हें साँस भी नहीं लेने देती।हालांकि मैंने शादी के बाद यह तय किया था कि मैं अपने बच्चों को उच्च शिक्षा ज़रूर दूँगा, और शायद आपने भी अपने बच्चों को यही दिया होगा। मेरे इस स्वप्न को ईश्वर ने मज़बूती दी। मेरी बड़ी बेटी ने केमिस्ट्री से एमएससी किया और उसकी शादी हो चुकी है। उससे छोटी बेटी ने नेट क्वालिफाई किया और कॉमर्स में पीएचडी की। अभी वह भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएसएसआर) से पोस्ट-डॉक्टोरल फेलोशिप कर रही है। साथ ही वह पीएचडी गाइडेंस इंस्टीट्यूट में वरिष्ठ शोध विश्लेषक के रूप में कार्यरत है। उससे छोटी बेटी इस समय एरा यूनिवर्सिटी से क्लिनिकल साइकोलॉजी में पीएचडी कर रही है। मेरा सबसे छोटा बेटा ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती यूनिवर्सिटी से बीसीए कर रहा है।मेरे लिए यह खुशनसीबी की बात है कि मेरे बच्चों ने उच्च शिक्षा हासिल करके मेरा नाम रोशन किया। मैं इस समय एक पत्रकार और शायर हूँ। मेरा अपना एनएस लाइव न्यूज़ चैनल है, पोर्टल है, और ‘न्याय स्रोत’ के नाम से हिंदी समाचार पत्र है। अब मैं दूसरों के समाचार पत्रों में नौकरी नहीं करता, बल्कि स्वतंत्र होकर अपनी कलम से दबे-कुचले, पिछड़े और कमज़ोर लोगों की मदद करता हूँ।
मैं एक पत्रकार हूँ, निष्पक्ष और निडर। मैं भ्रष्टाचारियों को जानता हूँ, उनके काले कारनामों से वाकिफ़ हूँ। लेकिन मेरी कलम सिर्फ़ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ नहीं, इंसानियत के लिए भी उठती है। मैं चाहता हूँ कि मेरा देश फिर से वही हो जाए, जहाँ हिंदू-मुसलमान नहीं, सिर्फ़ भाई-भाई हों। मैं चाहता हूँ कि मेरे कश्मीरी मोहल्ले की वो गलियाँ फिर से गूँजें—होली के रंगों से, दीपावली के दीयों से, मज़लिस की सदा से।आज भी जब मैं उन गलियों से गुज़रता हूँ, तो वो पुराने चेहरे आँखों के सामने आ जाते हैं। वो हँसी, वो बातें, वो प्यार। कभी-कभी लगता है, शायद वो दिन लौट सकते हैं। बस, हमें फिर से एक-दूसरे पर भरोसा करना होगा। हमें फिर से इंसानियत को गले लगाना होगा।मुझे याद है, एक बार चांद नारायण अंकल ने मुझसे कहा था, “बेटा, ये मोहल्ला सिर्फ़ ईंट-पत्थर का नहीं, दिलों का बस्ता है।” आज मैं उनके उस जुमले को फिर से जीना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भी वही प्यार, वही भाईचारा देखें, जो मैंने देखा।
आशा है, आप लोगों को मेरा यह लेख, जो सत्य पर आधारित है, पसंद आएगा।

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