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बिहार वोटर लिस्ट विवाद: सुप्रीम कोर्ट की बहस, चुनाव आयोग की जिद और आधार की अनिवार्यता का फैसला

ज़की भारतीय

बिहार विधानसभा चुनावों की दहलीज पर खड़ी राजनीति में वोटर लिस्ट का विशेष गहन संशोधन (SIR) एक बड़ा विवाद बनकर उभरा है। सुप्रीम कोर्ट में जारी बहसें, चुनाव आयोग की कथित हठधर्मिता और अंततः आधार को प्रमाण के रूप में शामिल करने का फैसला न केवल बिहार की राजनीति को प्रभावित कर रहा है, बल्कि पूरे देश के अन्य राज्यों में होने वाले संशोधनों पर भी सवाल खड़े कर रहा है। खासकर विदेशी घुसपैठियों के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद मात्र 10 विदेशी (5 मुस्लिम और 5 हिंदू) निकलने की खबर ने इस प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर गहरी चोट की है। इनमें से दो मुस्लिम व्यक्ति पहले ही मर चुके थे। इस मुद्दे पर याचिकाकर्ता योगेंद्र यादव की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि यदि आधार को बिहार SIR में शामिल किया गया है, तो यह आदेश अन्य राज्यों तक सीमित नहीं रह सकता।

आइए, इस पूरे विवाद को विस्तार से समझते हैं,सुप्रीम कोर्ट में जारी बहस लोकतंत्र की नींव पर सवाल

जुलाई 2025 से ही सुप्रीम कोर्ट में बिहार SIR को लेकर बहसें तेज हैं। विपक्षी दलों (आरजेडी, कांग्रेस, टीएमसी आदि) और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाया कि यह प्रक्रिया मतदाता दमन का हथियार है। जस्टिस सुर्य कांत और जस्टिस ज्योमलया बागची की बेंच ने 10 जुलाई को पहली सुनवाई की, जहां आयोग की ओर से वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने दावा किया कि SIR वोटर लिस्ट की शुद्धि के लिए आवश्यक है। लेकिन याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 2003 के बाद पंजीकृत 4.9 करोड़ मतदाताओं को नए सिरे से दस्तावेज जमा करने का बोझ डालना असंवैधानिक है, क्योंकि यह नागरिकता जांच की आड़ में गरीब और अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बना रहा है। कोर्ट ने आयोग की टाइमिंग पर सवाल उठाए: “यह प्रक्रिया चुनाव से ठीक पहले क्यों? क्या यह संभव है कि इतने कम समय में 7.9 करोड़ मतदाताओं की जांच हो जाए?”
अगस्त तक बहसें चलीं, जब 1 अगस्त को ड्राफ्ट लिस्ट जारी हुई। इसमें 65 लाख नाम हटाए गए थे, जिनमें से 22 लाख कथित तौर पर मृत थे। कोर्ट ने 14 अगस्त को अंतरिम आदेश दिया कि इन नामों की सूची जिला वेबसाइटों पर अपलोड हो, कारण बताए जाएं और स्थानीय भाषा में प्रचारित किया जाए। साथ ही, हटाए गए मतदाता आधार कार्ड जमा कर अपील कर सकते हैं।
सितंबर में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आधार को 11 दस्तावेजों के अलावा 12वां मान्य दस्तावेज माना जाए।
आयोग ने आपत्ति जताई कि आधार नकली हो सकता है और यह नागरिकता का प्रमाण नहीं, लेकिन कोर्ट ने कहा, “यह पहचान का प्रमाण है, नागरिकता का नहीं। आयोग को इसकी प्रामाणिकता जांचनी होगी।”
16 अक्टूबर को सुनवाई स्थगित कर 4 नवंबर के लिए टाली गई, जहां आयोग ने शपथ-पत्र देकर दावा किया कि 99.6% मतदाताओं ने दस्तावेज जमा कर दिए हैं। लेकिन याचिकाकर्ताओं ने कहा कि आधार को सभी 7.24 करोड़ मतदाताओं के लिए अनिवार्य बनाना चाहिए।

चुनाव आयोग की हठधर्मिता: आधार को क्यों ठुकराया?

चुनाव आयोग की जिद इस विवाद का केंद्र रही। SIR अधिसूचना में 11 दस्तावेज (जैसे पासपोर्ट, जन्म प्रमाण-पत्र, मैट्रिक प्रमाण-पत्र) बताए गए, लेकिन आधार, वोटर आईडी (EPIC) और राशन कार्ड को बाहर रखा गया। आयोग का तर्क था कि आधार केवल पहचान साबित करता है, नागरिकता नहीं।
बिहार सरकार के सर्वे के अनुसार, 87% आबादी के पास आधार है, लेकिन केवल 14% के पास मैट्रिक प्रमाण-पत्र और 2% के पास पासपोर्ट। इससे ग्रामीण और गरीब मतदाता प्रभावित हुए।
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा, “यह नागरिकता जांच का छद्म है। BLO (बूथ लेवल ऑफिसर) जैसा छोटा अधिकारी नागरिकता कैसे तय करेगा?”
आयोग ने दावा किया कि SIR से डुप्लिकेट और अयोग्य नाम हटेंगे, लेकिन कोर्ट ने चेतावनी दी कि यदि बड़े पैमाने पर हटाव हो, तो हस्तक्षेप करेंगे। फिर भी, आयोग की अनिच्छा ने इसे “हठधर्मिता” का रूप दिया।

आधार को शामिल करने का फैसला: बिहार से आगे की बहस

सुप्रीम कोर्ट का 8 सितंबर का फैसला मील का पत्थर था: आधार को स्टैंड-अलोन दस्तावेज मानें। कोर्ट ने कहा, “यह न्याय के हित में है। आयोग को कारण बताना होगा यदि वह इसे न माने।”
इससे 65 लाख हटाए गए मतदाताओं को राहत मिली, जो आधार जमा कर अपील कर सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि यह फैसला बिहार तक सीमित क्यों? याचिकाकर्ता योगेंद्र यादव ने दलील दी, “यदि आधार बिहार SIR में वैध है, तो अन्य राज्यों में क्यों नहीं? यह राष्ट्रीय नीति का मामला है।” यादव ने कहा कि यह “लोकतंत्र की रक्षा” का सवाल है, जहां पारदर्शिता सुनिश्चित हो।
कोर्ट ने सहमति जताई, लेकिन अभी स्पष्ट निर्देश नहीं दिया। मध्य प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में भी SIR की मांग हो रही है, जहां कांग्रेस ने आधार को अनिवार्य करने की मांग की।

बिहार में ‘विदेशी घुसपैठिए’: करोड़ों खर्च, मात्र 10 नाम!

SIR का मूल बहाना था विदेशी घुसपैठियों (खासकर बांग्लादेशी मुस्लिमों) को वोटर लिस्ट से हटाना। BJP नेता अमित शाह ने रैलियों में कहा, “घुसपैठिए वोट बैंक हैं, इन्हें हटाओ।” सीमांचल (पूर्णिया, अररिया आदि) को निशाना बनाया गया, जहां मुस्लिम आबादी अधिक है।
लेकिन परिणाम चौंकाने वाले निकले: पूरे बिहार में SIR के बाद मात्र 315 विदेशी नागरिक पाए गए—78 मुस्लिम और बाकी नेपाली हिंदू।
सीमांचल में 106 आपत्तियों पर जांच हुई, 40 नाम हटे—25 हिंदू और 15 मुस्लिम।
उपयोगकर्ता द्वारा उल्लिखित खबर के अनुसार, करोड़ों रुपये खर्च (सर्वे, BLOs की तैनाती आदि) के बाद मात्र 10 विदेशी निकले—5 मुस्लिम (जिनमें 2 मृत) और 5 हिंदू। यह आंकड़ा आयोग के डेटा से मेल खाता है, जो दर्शाता है कि ‘घुसपैठ’ का दावा प्रचार मात्र था। जनवरी 2025 की पिछली जांच में भी एक भी विदेशी नहीं मिला था।
इससे साबित होता है कि SIR का राजनीतिकरण हुआ, न कि वास्तविक शुद्धिकरण। AAP सांसद संजय सिंह ने इसे “झूठा प्रचार” कहा।

पारदर्शिता और समावेशिता की जरूरत

बिहार SIR विवाद सुप्रीम कोर्ट की बहसों से निकलकर राष्ट्रीय बहस बन चुका है। आधार को शामिल करने का फैसला सकारात्मक है, लेकिन यादव की दलील सही है—यह बिहार तक सीमित नहीं रहना चाहिए। चुनाव आयोग को हठधर्मिता छोड़नी होगी, ताकि करोड़ों खर्च व्यर्थ न जाए। विदेशी घुसपैठ के नाम पर मात्र 10 नाम निकलना न केवल विफलता दर्शाता है, बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देता है। लोकतंत्र में हर मतदाता का अधिकार सर्वोपरि है। यदि SIR पारदर्शी और समावेशी बने, तो यह मजबूती देगा, अन्यथा अविश्वास बढ़ेगा। सुप्रीम कोर्ट की 4 नवंबर की सुनवाई इस दिशा में निर्णायक साबित हो सकती है।

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