लखनऊ,4 अप्रैल। आज राज्यसभा में वक्फ संशोधन बिल 2025 को मंजूरी मिल गई, लेकिन यह जीत सरकार के लिए आसान नहीं रही। दिनभर चली तीखी बहस, विरोध प्रदर्शन और गठबंधन की मजबूरी के बीच यह विधेयक पारित हुआ। इस बिल के जरिए वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता और डिजिटलीकरण की बात तो कही जा रही है, लेकिन मुस्लिम समुदाय के लिए यह कई अनसुलझे सवाल और चुनौतियां भी लेकर आया है। खासकर उन संपत्तियों को लेकर चिंता बढ़ी है, जिनके पास कागजी सबूत नहीं हैं। दूसरी ओर, सरकार इसे मुस्लिम कल्याण के लिए क्रांतिकारी कदम बता रही है।
आइए, इस ऐतिहासिक दिन की कहानी को नए नजरिए से देखते हैं।
हंगामे के बीच राज्यसभा में पारित
सुबह 11 बजे जैसे ही केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने बिल पेश किया, विपक्षी सांसदों ने हंगामा शुरू कर दिया। समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव ने इसे “मुस्लिम धार्मिक स्वायत्तता पर हमला” करार दिया, वहीं AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी ने इसे “संविधान के खिलाफ साजिश” बताया। कांग्रेस की ओर से मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, “यह बिल गरीब मुस्लिमों की जमीन छीनने का हथियार बन सकता है।” इसके बावजूद, एनडीए के संख्याबल और सहयोगियों के समर्थन से शाम 6 बजे वोटिंग हुई। 236 सदस्यों वाली राज्यसभा में 121 वोटों के साथ बिल पास हो गया, जबकि विपक्ष के 85 सांसदों ने इसका विरोध किया।
चंद्रबाबू-नीतीश की चुप्पी और मजबूरी
एनडीए के दो बड़े सहयोगी, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू और जेडीयू के नीतीश कुमार की भूमिका इस बार चर्चा का केंद्र रही। सूत्रों के मुताबिक, दोनों नेताओं ने बिल के पक्ष में वोट तो दिया, लेकिन बहस में हिस्सा नहीं लिया। टीडीपी के 16 और जेडीयू के 12 सांसदों को व्हिप जारी किया गया था, जिसके चलते वे सरकार के साथ खड़े रहे। हालांकि, नीतीश कुमार की ओर से एक सुझाव जरूर आया था कि पुरानी धार्मिक संपत्तियों को छेड़ने से पहले राज्य सरकारों की सहमति ली जाए। यह सुझाव बिल में शामिल नहीं हुआ, लेकिन उनकी चुप्पी से बिहार के मुस्लिम समुदाय में नाराजगी की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। चंद्रबाबू नायडू ने भी आंध्र प्रदेश में मुस्लिम वोटों को ध्यान में रखते हुए पहले संशोधन की मांग की थी, पर अंत में वे भी सरकार के साथ रहे।
इस बिल से 500 साल पुरानी मस्जिद-कब्रिस्तान पर भी संकट के बादलों का साया
बिल का एक बड़ा विवाद उन वक्फ संपत्तियों को लेकर है, जिनके पास कोई कागजी दस्तावेज नहीं हैं। मिसाल के तौर पर, देशभर में कई ऐसी मस्जिदें और कब्रिस्तान हैं, जो 500 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। इनका कोई रिकॉर्ड न होने की स्थिति में बिल कहता है कि इन्हें सरकारी संपत्ति माना जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक, ऐसी 30 प्रतिशत से ज्यादा वक्फ संपत्तियां खतरे में पड़ सकती हैं। मुस्लिम संगठनों का कहना है कि यह “सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को मिटाने की कोशिश” है। मगर सरकार का तर्क है कि डिजिटल रजिस्ट्रेशन से ऐसी संपत्तियों को सुरक्षा मिलेगी और अतिक्रमण रुकेगा। सवाल यह है कि क्या सदियों पुरानी परंपराओं को कागजों में कैद करना इतना आसान होगा?
नकारात्मक प्रभावों का हल मुश्किल
इस बिल से कई परेशानियां सामने आ सकती हैं। अगर कोई मस्जिद या कब्रिस्तान बिना कागजात के सरकारी कब्जे में चला गया, तो उसे वापस लेने का कानूनी रास्ता लंबा और जटिल होगा। ग्रामीण इलाकों में, जहां लोग दस्तावेजीकरण से अनजान हैं, यह समस्या और गहरी हो सकती है। इसके अलावा, गैर-मुस्लिमों को वक्फ बोर्ड में शामिल करने से धार्मिक स्वायत्तता पर सवाल उठ रहे हैं।
एक मुस्लिम मौलवी के अनुसार, “हमारी संपत्ति पर फैसला कोई और कैसे ले सकता है?”
इन मुद्दों का हल निकालना सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगा।
दान और कल्याण की नई राह और सरकार के खोखले दावे
कहा जा रहा है,बिल में कुछ सकारात्मक बदलाव भी हैं। अब कोई भी मुस्लिम अपनी संपत्ति को वक्फ में दान कर सकेगा, जिससे गरीबों और महिलाओं के लिए कल्याण योजनाओं को बल मिलेगा।
बताते चलें, ये पहले भी था कि कोई भी मुस्लिम अपनी खरीदी हुई संपत्ति को वक़्फ़ में दान दे सकता था। और लाखों वक़्फ़ों द्वारा शिक्षा, स्वास्थ और धार्मिक कार्यों पर वक़्फ़ की कमाई से खर्च किया जाता रहा है। निर्धन पुरुष और महिलाओं को प्रतिमाह पेशन, उनकी सहायता भी वक़्फ़ों द्वारा की जाती रही है ये सरकार कोई नई बात नहीं कर रही है। रही बात महिलाओं की भागीदारी तो उसके लिए भी वक़्फ़ में प्राविधान पहले से था। जहां महिलाओं को मुतवल्ली बनाया जाता था वहीं बोर्ड के गठन में विधायक और सांसद कोटे से सदस्य भी नियुक्त होते थे जिसकी एक मिसाल समाजवादी पार्टी से एमपी रही नूर बानो से दी जा सकती है। इसलिए सरकार के ये दावे खोखले हैं, पूर्व में महिलाओं की भागीदारी नहीं थी, शिक्षा, स्वास्थ और कल्याण के लिए वक़्फ़ की ओर से कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जाता था। पूर्व में इन तमाम बातों पर वक़्फ़ संपत्तियों के ट्रस्टी प्रयासरत रहे हैं।
हालांकि ये सब अधिकार मुतवल्ली/व्यवस्थापक को तब होते हैं जब वक़्फ़ करने वाले की मंशा हो। क्योंकि किसी भी वक़्फ़ संपत्ति का स्वरूप वाकिफ की मंशा के अनुरूप चलता है। इसलिए ये कहना ग़लत है कि पूर्व में ये सब नहीं होता था ।
सरकार का वक़्फ़ की 9.4 लाख एकड़ वक्फ जमीन से सालाना 12,000 करोड़ रुपये की आय का अनुमान है, जो शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में लगाई जा सकती है।
यहां पर ये बताते चलें कि अधिकतर मुतवल्ली वाकिफ की मंशा को ध्यान में रखते हुए कार्य करते हैं,यदि वाकिफ ने वक़्फ़ डीड में इस तरह के कार्यों के किए जाने का उल्लेख किया है तो मुतवल्ली उसपर चलने के लिए बाध्य होता है।
हालांकि सरकार का ये दावा है कि ऑडिट और डिजिटलीकरण से भ्रष्टाचार रुकेगा और संपत्तियों का सही इस्तेमाल होगा।
वक्फ संशोधन बिल 2025 अब कानून बनने की राह पर
लोकसभा और राज्यसभा से बिल पास होने के बाद अब राष्ट्रपति के सामने रखा जाएगा ,जिनकी मंजूरी के बाद ये क़ानून बन जाएगा। लेकिन इसका असली इम्तिहान जमीन पर होगा। क्या यह मुस्लिम समुदाय के लिए वरदान साबित होगा या उनकी धरोहर पर संकट लाएगा? यह वक्त बताएगा। फिलहाल, राज्यसभा में पारित होने के बाद यह साफ है कि सरकार अपनी मंशा पर अडिग है, लेकिन विपक्ष और समुदाय की नाराजगी को नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा।