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बीजेपी सांसद का आपत्तिजनक बयान, कहा देश में गृहयुद्ध और दंगे भड़काना चाहती है सुप्रीम कोर्ट

बीजेपी सांसद का आपत्तिजनक बयान, कहा देश में गृहयुद्ध और दंगे भड़काना चाहती है सुप्रीम कोर्ट

ज़की भारतीय 

लखनऊ, 20 अप्रैल। सुप्रीम कोर्ट, जो भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है, देश में कानून-व्यवस्था को बनाए रखने, गलत फैसलों को सुधारने, और हाई कोर्ट तक के कुछ गलत निर्णयों को ठीक करने के लिए स्वत: संज्ञान लेकर संवैधानिक ढांचे को मजबूत करती है। ऐसी संस्था और इसके जिम्मेदार मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना को सीधे निशाना बनाना गंभीर सवाल खड़े करता है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सांसद निशिकांत दुबे ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बीच यह कहकर विवाद खड़ा कर दिया कि कोर्ट देश में “गृह युद्ध” और “धार्मिक युद्ध” भड़काने के लिए जिम्मेदार है। यह बयान न केवल सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा पर हमला है, बल्कि यह संदेश देता है कि बीजेपी के कुछ सांसद ऐसी टिप्पणियों के जरिए सर्वोच्च न्यायालय का मनोबल तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।जज भी हमारे और आपके जैसे इंसान हैं। उनके सीने में भी दिल धड़कता है, उन्हें भी डर लग सकता है, और वे भी दहल सकते हैं। ऐसे में, जनता का नेतृत्व करने वाले सांसदों के इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना बयानों के खिलाफ उचित कार्रवाई जरूरी है, ताकि देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था की गरिमा और जनता का भरोसा बरकरार रहे।वक्फ कानून और सुप्रीम कोर्ट की भूमि का वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की गई हैं, जो इस कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देती हैं। याचिकाकर्ताओं, जिनमें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) और AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी शामिल हैं, का कहना है कि यह कानून मुस्लिम समुदाय के धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 26) और समानता (अनुच्छेद 14) के अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस कानून में वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिमों को शामिल करने और “वक्फ बाय यूजर” संपत्तियों को डिनोटिफाई करने जैसे प्रावधान शामिल हैं, जिन्हें मुस्लिम समुदाय अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान पर हमला मानता है।17 अप्रैल, 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आश्वासन लिया कि 5 मई, 2025 को अगली सुनवाई तक वक्फ बोर्ड में गैर-मुस्लिमों की नियुक्ति नहीं होगी और न ही “वक्फ बाय यूजर” संपत्तियों को डिनोटिफाई किया जाएगा। यह कदम सामाजिक तनाव को कम करने और कानून की संवैधानिकता की जांच करने के लिए उठाया गया। सुप्रीम कोर्ट का यह रुख उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी को दर्शाता है, जो संसद द्वारा पारित कानूनों को संविधान के दायरे में रखने के लिए है।

निशिकांत दुबे का विवादित बयान

निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट की इस कार्रवाई पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा, “अगर सुप्रीम कोर्ट को ही कानून बनाना है, तो संसद भवन को ताला लगा देना चाहिए।” इसके साथ ही, उन्होंने सीजेआई संजीव खन्ना को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाते हुए दावा किया कि वह देश में “गृह युद्ध” के लिए जिम्मेदार हैं। दुबे ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट संसद के कानूनों को रद्द कर रहा है और राष्ट्रपति, जो जजों की नियुक्ति करते हैं, को निर्देश दे रहा है। यह बयान न केवल सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक भूमिका पर सवाल उठाता है, बल्कि इसे कमजोर करने की कोशिश भी माना जा रहा है।

विपक्ष का कड़ा विरोध

कांग्रेस नेता मणिकम टैगोर ने दुबे के बयान को “निंदनीय” और “न्यायालय की अवमानना” करार दिया। उन्होंने कहा, “सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। दुबे जैसे नेता देश की संस्थाओं को कमजोर कर रहे हैं।” डीएमके और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने भी इस बयान की निंदा की। टीएमसी सांसद कल्याण बनर्जी ने वक्फ बिल पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के अध्यक्ष जगदंबिका पाल से इस्तीफे की मांग की थी, जिसके जवाब में दुबे ने यह टिप्पणी की।

बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि फैसले से लेना चाहिए सबक

सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में कई बार अपनी निष्पक्षता और संवैधानिक जिम्मेदारी को साबित किया है। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद का फैसला (9 नवंबर, 2019) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर विवादित जमीन पर राम मंदिर निर्माण का आदेश दिया, साथ ही मुस्लिम समुदाय को अयोध्या में वैकल्पिक जमीन पर मस्जिद बनाने का निर्देश दिया। हालांकि फैसले में यह स्पष्ट नहीं हुआ कि वहां पहले राम मंदिर था, फिर भी पूरे देश के मुस्लिम समुदाय ने एक स्वर में कहा, “हम सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले को मानेंगे।”मुस्लिम समुदाय ने इस फैसले को देशहित और सामाजिक सौहार्द के लिए स्वीकार किया। न कोई हिंसा हुई, न ही सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कोई बयान आया। दुबे जैसे सांसदों को इस संयम और सुप्रीम कोर्ट के प्रति मुस्लिम समुदाय की श्रद्धा से सीख लेनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में आस्था और कानून के बीच संतुलन बनाया, जिससे देश में शांति बनी रही।

क्या कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए?

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि दुबे का बयान कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट्स एक्ट, 1971 के तहत आपराधिक अवमानना (क्रिमिनल कंटेम्प्ट) की श्रेणी में आ सकता है। यह बयान सुप्रीम कोर्ट की गरिमा को ठेस पहुंचाने और उसकी कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप करने का प्रयास करता है।

अनुच्छेद 129 के तहत, सुप्रीम कोर्ट स्वतः ले सकता है संज्ञान

अतीत में, कोर्ट ने प्रशांत भूषण (2020) जैसे मामलों में अवमानना के लिए कार्रवाई की है।हालांकि, सुप्रीम कोर्ट अक्सर राजनीतिक बयानों पर संयम बरतता है, ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन बना रहे। फिर भी, अगर कोर्ट यह मानता है कि यह बयान जनता के भरोसे को कमजोर करता है, तो वह दुबे को नोटिस जारी कर सकता है।

सामाजिक प्रभाव और चिंताएं

दुबे का यह बयान सामाजिक तनाव को और बढ़ा सकता है। वक्फ कानून को लेकर पहले से ही हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच बहस चल रही है। बीजेपी का दावा है कि यह कानून वक्फ बोर्ड में पारदर्शिता लाएगा, जबकि मुस्लिम समुदाय इसे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला मानता है। ऐसे में, “गृह युद्ध” जैसे शब्दों का इस्तेमाल सामुदायिक ध्रुवीकरण को तेज कर सकता है।कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इस तरह के बयान हिंदू संगठनों को सड़कों पर उतरने के लिए उकसा सकते हैं, जिससे सामाजिक अशांति बढ़ सकती है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका इस मामले में महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसने पहले ही केंद्र से आश्वासन लेकर तनाव को कम करने की कोशिश की है। लेकिन सांसदों के इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना बयान स्थिति को और जटिल बना सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट न केवल भारत की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है, बल्कि देश की एकता और सामाजिक सौहार्द का प्रतीक भी है। निशिकांत दुबे जैसे सांसदों के बयान इस संस्था की मर्यादा और जनता के भरोसे को कमजोर करने का प्रयास करते हैं। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि फैसले में मुस्लिम समुदाय ने जिस संयम और सम्मान का परिचय दिया, वह एक मिसाल है। जनता के नेतृत्वकर्ताओं को ऐसी टिप्पणियों से बचना चाहिए और सुप्रीम कोर्ट की गरिमा को बनाए रखने में योगदान देना चाहिए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई (5 मई, 2025) वक्फ कानून के भविष्य को तय करेगी, और उम्मीद है कि यह देश में शांति और संवैधानिक मूल्यों को और मजबूत करेगा।

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