जकी भारतीय
अखिलेश यादव की चुप्पी से मुस्लिम समुदाय नाराज
डॉ. अली खान महमूदाबाद, अशोका यूनिवर्सिटी, सोनीपत, हरियाणा में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख और एसोसिएट प्रोफेसर, को 18 मई 2025 को हरियाणा पुलिस ने दिल्ली से गिरफ्तार किया। उनकी गिरफ्तारी एक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर हुई, जिसमें उन्होंने भारतीय सेना के ऑपरेशन सिंदूर और उसकी प्रेस ब्रीफिंग पर टिप्पणी की थी। पोस्ट में उन्होंने लिखा, “कर्नल सोफिया कुरैशी की तारीफ करते हुए इतने सारे दक्षिणपंथी टिप्पणीकारों को देखकर मुझे खुशी हो रही है। लेकिन शायद ये लोग मॉब लिंचिंग, मनमाने बुलडोजर और बीजेपी के नफरत फैलाने वाले लोगों के लिए भी इसी तरह आवाज उठा सकते हैं कि इन लोगों को भारतीय नागरिक के तौर पर सुरक्षा दी जानी चाहिए। दो महिला सैनिकों के जरिए सूचना देने का नजरिया महत्वपूर्ण है, लेकिन इस नजरिए को हकीकत में बदलना चाहिए, नहीं तो यह सिर्फ पाखंड है।” इस बयान को हरियाणा राज्य महिला आयोग और बीजेपी युवा मोर्चा के सदस्य योगेश जठेड़ी ने सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने और सेना का अपमान करने वाला माना, जिसके बाद उनके खिलाफ दो एफआईआर दर्ज की गईं। 19 मई को उन्हें सोनीपत ले जाकर हिरासत में लिया गया, और उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में 20 मई को सुनवाई हुई।इस मामले में समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की चुप्पी ने मुस्लिम समुदाय में नाराजगी पैदा कर दी है। डॉ. महमूदाबाद सपा के कार्यकर्ता भी हैं, लेकिन अखिलेश ने उनके समर्थन में कोई बयान नहीं दिया। पहले आजम खान के साथ सपा की बेरुखी को लोग भूल नहीं पाए थे, और अब अली खान महमूदाबाद के साथ भी वही रवैया देखने को मिला। इस अनदेखी से सपा समर्थकों में गुस्सा बढ़ रहा है, जो पार्टी के भविष्य के लिए चुनौती बन सकता है।
प्रोफेसर का मामला और दोहरे मापदंड
हाल ही में एक प्रोफेसर की गिरफ्तारी का मामला भी चर्चा में रहा, जिसने सपा और अखिलेश यादव के प्रति मुस्लिम समुदाय की नाराजगी को और बढ़ा दिया। इस प्रोफेसर पर कथित तौर पर आपत्तिजनक बयान देने का आरोप लगा, जिसके लिए उन्हें जेल भेज दिया गया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका पर विचार किया, लेकिन अभी तक कोई ठोस राहत नहीं मिली है। दूसरी ओर, मध्य प्रदेश के एक भाजपा मंत्री द्वारा कथित तौर पर लेफ्टिनेंट कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करने का मामला सामने आया। इस मामले में हाई कोर्ट ने संज्ञान लिया, लेकिन संबंधित धाराएं लागू नहीं की गईं, और न ही उनकी गिरफ्तारी हुई।
इन दो मामलों के बीच तुलना ने मुस्लिम समुदाय में यह धारणा बनाई है कि सपा और भाजपा में कोई खास अंतर नहीं है। दोनों ही पार्टियां, समुदाय के अनुसार, मुस्लिम नेताओं और व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई में दोहरा मापदंड अपनाती हैं। अखिलेश यादव पर आरोप है कि उन्होंने इस मामले में भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया, न ही कोई धरना-प्रदर्शन किया, जो उनके दावों के विपरीत है। यह सवाल उठता है कि क्या अखिलेश केवल सोशल मीडिया पर ट्वीट करके अपनी जिम्मेदारी पूरी मानते हैं, जबकि उनके समर्थकों को उनसे अधिक सक्रियता और नेतृत्व की उम्मीद है?
अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी: मुस्लिम समुदाय के प्रति विश्वास का संकट
उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी (सपा) का एक लंबा इतिहास रहा है, जो सामाजिक समानता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर आधारित होने का दावा करता है। इस पार्टी की स्थापना मुलायम सिंह यादव ने 1992 में की थी, और उनके नेतृत्व में सपा ने विशेष रूप से यादव और मुस्लिम समुदायों के बीच मजबूत समर्थन आधार बनाया। हालांकि, हाल के वर्षों में, खासकर अखिलेश यादव के नेतृत्व में, पार्टी पर मुस्लिम समुदाय के प्रति उदासीनता और विश्वासघात के आरोप लग रहे हैं। इन आरोपों का केंद्र बिंदु सपा के कद्दावर नेता और मुलायम सिंह के करीबी सहयोगी आजम खान का मामला है, जिन्हें कथित तौर पर अखिलेश ने मुश्किल समय में अकेला छोड़ दिया। इसके अलावा, हाल के कुछ अन्य मामलों, जैसे कि एक प्रोफेसर की गिरफ्तारी और मध्य प्रदेश के एक भाजपा नेता के खिलाफ कार्रवाई में अंतर, ने मुस्लिम समुदाय में सपा के प्रति नाराजगी को और बढ़ा दिया है। यह लेख इन मुद्दों को गहराई से विश्लेषित करता है और इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे सपा की नीतियां और अखिलेश का रवैया मुस्लिम समुदाय के बीच अविश्वास पैदा कर रहा है।
आजम खान का मामला: सपा की उदासीनता का प्रतीक
आजम खान, समाजवादी पार्टी के एक प्रमुख मुस्लिम चेहरे और उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक प्रभावशाली नेता, लंबे समय से पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण स्तंभ रहे हैं। मुलायम सिंह यादव के करीबी मित्र और सहयोगी के रूप में, आजम खान ने सपा को मुस्लिम वोट बैंक को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, हाल के वर्षों में उनके खिलाफ दर्ज दर्जनों मुकदमों और उनकी जेल यात्रा ने सपा के रवैये पर सवाल उठाए हैं। अखिलेश यादव पर आरोप है कि उन्होंने आजम खान और उनके परिवार को उस समय कोई समर्थन नहीं दिया जब वे कानूनी और राजनीतिक संकट से जूझ रहे थे।
2024 में, जब अखिलेश यादव ने उपचुनाव के दौरान आजम खान के परिवार से मुलाकात की, तो इसे कई लोगों ने एक राजनीतिक स्टंट के रूप में देखा। यह मुलाकात उस समय हुई जब आजम खान जेल में थे, और उनके समर्थकों का मानना है कि यह केवल चुनावी लाभ के लिए की गई थी, न कि सच्ची सहानुभूति के लिए। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने इस बात पर नाराजगी जताई कि अखिलेश ने आजम खान के लिए सुप्रीम कोर्ट में कोई ठोस कानूनी सहायता या समर्थन नहीं किया, जबकि कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ वकील आजम खान के मामले को देख रहे हैं। यह सवाल उठता है कि अगर सपा वास्तव में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की पक्षधर है, तो उसने अपने ही एक वरिष्ठ नेता के लिए इतनी उदासीनता क्यों दिखाई?
मुस्लिम वोट बैंक और सपा की रणनीति
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाता लंबे समय से सपा का एक महत्वपूर्ण समर्थन आधार रहे हैं। 2022 और 2024 के चुनावों में मुस्लिम वोटों ने सपा और उसके गठबंधन को मजबूती दी। सपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव में 37 सीटें जीतकर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, जिसमें मुस्लिम वोटों की अहम भूमिका थी। हालांकि, यह धारणा बढ़ रही है कि सपा ने इस समुदाय को केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया, बिना उनके हितों के लिए ठोस कदम उठाए।
आजम खान जैसे नेताओं के प्रति सपा की उदासीनता और मुस्लिम समुदाय के मुद्दों पर अखिलेश की कथित चुप्पी ने इस विश्वास को और कमजोर किया है। सोशल मीडिया पर कई यूजर्स ने यह दावा किया कि मुलायम सिंह के समय में आजम खान जैसे मुस्लिम नेताओं को अधिक सम्मान और समर्थन मिलता था, लेकिन अखिलेश ने इस परंपरा को तोड़ दिया। इसके अलावा, सपा की टिकट वितरण नीति में भी मुस्लिम उम्मीदवारों को कम प्रतिनिधित्व देने की बात सामने आई है। 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा ने केवल 4 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया, जबकि दलित और ओबीसी उम्मीदवारों को अधिक प्राथमिकता दी गई।
कांग्रेस की ओर बढ़ता मुस्लिम समुदाय
मुस्लिम समुदाय में यह भावना प्रबल हो रही है कि कांग्रेस उनके हितों के प्रति अधिक संवेदनशील है। राहुल गांधी की सक्रियता और कांग्रेस की नीतियों को लेकर समुदाय में सकारात्मक धारणा बन रही है। कांग्रेस ने अपने शासनकाल में शिया और सुन्नी दोनों समुदायों के नेताओं को कैबिनेट मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया, जिसे समुदाय सकारात्मक रूप से देखता है। इसके विपरीत, सपा पर आरोप है कि वह केवल यादव वोटों पर निर्भर रहने की कोशिश कर रही है, जो उत्तर प्रदेश में केवल 2-3% है, जबकि मुस्लिम मतदाता 20% से अधिक हैं।
सोशल मीडिया पर यह भावना साफ दिखाई देती है कि मुस्लिम समुदाय अब एकजुट होकर कांग्रेस को समर्थन देने की दिशा में सोच रहा है। कई यूजर्स ने यह भी कहा कि अखिलेश यादव में वह नेतृत्व और करिश्मा नहीं है जो राहुल गांधी में दिखता है। यह धारणा सपा के लिए एक बड़ा खतरा बन सकती है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में उनकी सफलता काफी हद तक मुस्लिम वोटों पर निर्भर रही है।
अखिलेश की ट्विटर राजनीति: विश्वसनीयता का संकट
अखिलेश यादव की सोशल मीडिया पर सक्रियता को उनके समर्थक उनकी ताकत मानते हैं, लेकिन उनके आलोचक इसे “ट्विटर नेतागिरी” कहकर खारिज करते हैं। कई मौकों पर, जैसे पहलगाम आतंकी हमले के बाद, अखिलेश ने सोशल मीडिया पर भाजपा की आलोचना की, लेकिन ठोस कार्रवाई या प्रदर्शन की कमी ने उनके बयानों को खोखला बना दिया। मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग मानता है कि अखिलेश केवल सोशल मीडिया पर बयानबाजी करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं, जबकि उनके नेतृत्व में सपा को सड़क पर उतरकर समुदाय के लिए लड़ना चाहिए था।
समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के सामने आज एक विश्वसनीयता का संकट है। आजम खान जैसे कद्दावर मुस्लिम नेताओं के प्रति उनकी उदासीनता, प्रोफेसर जैसे मामलों में चुप्पी, और मुस्लिम समुदाय के प्रति ठोस कदमों की कमी ने सपा की धर्मनिरपेक्ष छवि को धूमिल किया है। दूसरी ओर, कांग्रेस और राहुल गांधी की सक्रियता ने मुस्लिम समुदाय को एक वैकल्पिक मंच प्रदान किया है। अगर सपा को अपने मुस्लिम वोट बैंक को बचाए रखना है, तो अखिलेश को केवल ट्वीट करने से आगे बढ़कर ठोस कार्रवाई करनी होगी। अन्यथा, यह समुदाय पूरी तरह से कांग्रेस की ओर पलट सकता है, जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा के लिए एक बड़ा झटका होगा।
लखनऊ से अनुपम श्रीवास्तव की रिपोर्ट के अनुसार, सिविल सोसाइटी समूह, अशोका यूनिवर्सिटी और ला मार्टिनियर कॉलेज के पूर्व छात्र प्रोफेसर डॉ. अली खान महमूदाबाद की गिरफ्तारी के खिलाफ एकजुट हो गए हैं। डॉ. महमूदाबाद को 18 मई को हरियाणा पुलिस ने उनके सोशल मीडिया पोस्ट्स के आधार पर गिरफ्तार किया था, जिसमें उन्होंने भारत की सैन्य कार्रवाइयों और पाकिस्तान समर्थक बयानों की आलोचना की थी। उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को सुनवाई होनी है, जिसमें गिरफ्तारी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बताते हुए तत्काल सुनवाई की मांग की गई है। ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमेन्स एसोसिएशन जैसे संगठनों ने इसे आजादी पर हमला करार दिया और निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया की मांग की है। ला मार्टिनियर कॉलेज ने भी उनके समर्थन में बयान जारी किया है।
इस बीच, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने भी डॉ. महमूदाबाद के समर्थन में बयान दिया है। उन्होंने कहा, “अली खान महमूदाबाद भारत के सबसे प्रतिष्ठित विद्वानों में से एक हैं और वैश्विक स्तर पर उनकी पहचान है। अगर उन्हें mickey mouse आरोपों पर गिरफ्तार कर जेल में डाला जाता है, तो यह सिर्फ उनके नाम की वजह से है।” इस बयान से साफ है कि डॉ. महमूदाबाद के पक्ष में समर्थन बढ़ता जा रहा है।इस घटना से समाजवादी पार्टी (सपा) के नेता अखिलेश यादव को सबक लेना चाहिए। डॉ. अली खान महमूदाबाद, जो सपा के कार्यकर्ता भी हैं, के पक्ष में बुद्धिजीवियों और संगठनों का उतरना यह दर्शाता है कि जनता अपने नेताओं से समर्थन की अपेक्षा रखती है। लेकिन अखिलेश यादव ने न तो आजम खान के मामले में सक्रियता दिखाई और न ही अब डॉ. महमूदाबाद के लिए उचित कार्रवाही की मांग की।
इसके बजाय, अखिलेश ने इस मामले पर चुप्पी साधते हुए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर एक शेर पोस्ट कर दिया, जिससे मुस्लिम समुदाय के लोगों में नाराजगी फैल गई। पहले आजम खान के साथ सपा की बेरुखी को लोग भूल भी नहीं पाए थे कि अब अली खान महमूदाबाद के साथ भी वही रवैया अपनाया गया। सपा सुप्रीमो होने के नाते अखिलेश को विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी निभाते हुए इस “निकम्मी सरकार” से सवाल करना चाहिए था और अली खान के हक में मजबूती से खड़ा होना चाहिए था।सोशल मीडिया पर एक यूजर ने अखिलेश यादव की आलोचना करते हुए लिखा, “अली खान को सिर्फ मुस्लिम समुदाय का ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के इंसाफ पसंद लोगों का समर्थन हासिल है। अली खान को अपनी पार्टी की जरूरत नहीं थी, बल्कि आपको उनकी जरूरत थी। आपने आजम खान की तरह अली खान को भी मुसीबत में छोड़कर किनारा कर लिया। हमें आजम खान से कोई हमदर्दी नहीं, लेकिन सपा की बेवफाई का तरीका बड़ा निराला है। अली खान सच्चे देशभक्त हैं और उनके साथ पूरी दुनिया खड़ी है। ऐसे लीडर का 2027 के चुनाव में पूरी तरह सफाया होगा, इंशाल्लाह।” यह बयान सपा और अखिलेश यादव के प्रति लोगों की नाराजगी को साफ तौर पर दर्शाता है।दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को खुलकर समर्थन देती है, भले ही वे विवादों में हों। मिसाल के तौर पर, हाल ही में एक भाजपा सांसद ने सुप्रीम कोर्ट पर ही आरोप लगा दिया था, लेकिन पार्टी ने इसे उनका “निजी बयान” कहकर पल्ला झाड़ लिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को हल्के में लेते हुए कहा कि उसके कंधे इतने कमजोर नहीं हैं कि इस तरह के बयानों का बोझ न उठा सके। इसी तरह, मध्य प्रदेश के एक भाजपा मंत्री, जिन्होंने फौजिया कुरैशी के खिलाफ आपत्तिजनक बयान दिया था, को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कार्रवाई के आदेश के बावजूद पार्टी बचाने में लगी है। अखिलेश यादव और उनकी पार्टी, जो मुस्लिम समुदाय के समर्थन पर अपनी सियासी बुनियाद रखती है—जैसा कि उनके पिता मुलायम सिंह यादव के समय से चला आ रहा है—वह इस मामले में चुप्पी साधे हुए है। आजम खान को पहले नजरअंदाज किया गया, और अब डॉ. अली खान महमूदाबाद के साथ भी यही रवैया अपनाया गया। यह समाजवादी पार्टी के लिए भविष्य में एक बड़ी चुनौती बन सकता है, क्योंकि उनकी यह अनदेखी उनके समर्थकों में नाराजगी पैदा कर सकती है। अखिलेश को चाहिए कि वे भाजपा से सीखें और अपने कार्यकर्ताओं के हक में मजबूती से खड़े हों, वरना यह मुद्दा सपा के लिए दीवार बनकर खड़ा हो सकता है।