लखनऊ, 28 जून । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) द्वारा संविधान की प्रस्तावना से “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द हटाने की मांग के बीच उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने महत्वपूर्ण बयान दिया है। उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह संविधान की आत्मा है। उन्होंने कहा, “भारतीय संविधान की प्रस्तावना अनूठी है। भारत को छोड़कर किसी अन्य देश में संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं हुआ। प्रस्तावना वह आधार है, जिस पर संविधान विकसित हुआ।” हालांकि, उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत “समाजवादी,” “धर्मनिरपेक्ष,” और “अखंडता” जैसे शब्द जोड़े गए थे।
RSS महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि ये शब्द “जबरन” जोड़े गए थे और वर्तमान में इन पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। इस बयान ने विवाद खड़ा कर दिया है। विपक्षी नेता, विशेष रूप से कांग्रेस के राहुल गांधी, ने RSS और BJP पर निशाना साधते हुए कहा कि उन्हें संविधान नहीं, बल्कि मनुस्मृति चाहिए, क्योंकि संविधान समानता, धर्मनिरपेक्षता, और न्याय की बात करता है। गांधी ने कहा कि RSS का यह रुख संविधान और इसके निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर का अपमान है।
क्या है समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष का अर्थ ?
“समाजवादी” शब्द का तात्पर्य सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देना है, जिसमें संसाधनों का समान वितरण और सामाजिक न्याय शामिल है। “धर्मनिरपेक्ष” का अर्थ है कि राज्य किसी भी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देगा और सभी धर्मों के प्रति निष्पक्ष रहेगा। ये शब्द 1976 में आपातकाल के दौरान जोड़े गए थे, ताकि संविधान के मूल्यों को और स्पष्ट किया जा सके। आलोचकों का कहना है कि यदि ये शब्द जोड़े गए थे, तो इसके पीछे तत्कालीन सरकार का उद्देश्य देश की एकता और समानता को मजबूत करना था। अब इन्हें हटाने की मांग को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह संविधान के मूल भाव को कमजोर करने की कोशिश है।
इस मुद्दे पर सवाल उठ रहे हैं कि RSS आखिर इस तरह के बेबुनियाद मामले क्यों उठा रही है। क्या बेरोजगारी, शिक्षा, और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर ध्यान देना अधिक जरूरी नहीं है?
विपक्ष का आरोप है कि RSS और BJP संविधान को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि RSS का कहना है कि वे केवल ऐतिहासिक संशोधनों पर चर्चा चाहते हैं। यह विवाद देश में राजनीतिक और सामाजिक बहस को और गर्म कर सकता है।