लखनऊ, 29 जून । हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी पुराने लखनऊ में स्थित कर्बला दियानतुद्दौला में कल,2 मोहर्रम 1447 हिजरी (28 जून 2025) को शाम 8 बजे हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मदीने से कर्बला तक के ऐतिहासिक सफर का मंजर पेश किया गया।
सफ़र ए इमामे हुसैन अलैहिस्सलाम के जुलूस का आग़ाज़ तिलावत-ए- कलाम-ए-पाक से किया गया जिसके बाद शिया धर्म गुरु सय्यद कल्बे जव्वाद नकवी ने आयोजित मजलिस को संबोधित किया जिसके बाद
इदारए सक़्क़ाए सकीना, नूराबाड़ी लखनऊ के बैनर तले करबला के अंदर जुलूस निकाला गया।
इस जुलूस में हज़ारों अकीदतमंदों ने शिरकत की, जिन्होंने “या हुसैन, या हुसैन” की सदाओं के साथ मातम किया और जियारत की। शिया समुदाय द्वारा इमाम हुसैन (अ.स.) की कुर्बानी को गहरी अकीदत के साथ याद किया जाता है, और इसी सिलसिले में यह जुलूस रोज़ा-ए-इमाम हुसैन (अ.स.) का तवाफ करता है।
इस दौरान अकीदतमंदों की आंखें नम थीं, और आंखों से आंसू बह रहे थे, जो इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के गम और उनकी कुर्बानी के प्रति श्रद्धा को दर्शा रहे थे।
इस जुलूस ने इमाम हुसैन (अ.स.) के उस ऐतिहासिक सफर को जीवंत किया, जो 28 रजब 60 हिजरी को मदीने से शुरू हुआ और 2 मुहर्रम 61 हिजरी को कर्बला में समाप्त हुआ। यह यात्रा, लगभग 1,200 किलोमीटर की, करीब 4 महीने चली, क्योंकि काफिले में उनके परिवार, बच्चे, और सामान शामिल थे। इमाम हुसैन (अ.स.) को मालूम था कि यज़ीद की विशाल सेना के साथ युद्ध अनिवार्य है, लेकिन उन्होंने मदीने में खूनखराबे से बचने के लिए वहां युद्ध न करने का फैसला किया। मदीना, इस्लाम का पवित्र शहर, जहां खून बहना उचित नहीं माना जाता। यज़ीद ने उनसे समझौता करने या युद्ध करने को कहा। इमाम हुसैन (अ.स.) ने यज़ीद से कहा, “अगर तुम्हें लगता है कि मैं तुम्हारे खिलाफ साज़िश कर रहा हूं, तो मुझे हिंदुस्तान (भारत) जाने दो।” लेकिन यज़ीद ने इससे इनकार कर दिया और युद्ध की शर्त रखी।
इमाम हुसैन (अ.स.) अपने 71 साथियों के साथ कर्बला पहुंचे, जिनमें उनके 6 महीने के बेटे हजरत अली असगर, छोटी बेटी हजरत सकीना, भाई हजरत अब्बास, बेटे हजरत अली अकबर, भतीजे हजरत कासिम जैसे वफादार शामिल थे।
10 मोहर्रम 61 हिजरी को सुबह फज्र की नमाज़ के बाद युद्ध शुरू हुआ, जो शाम तक चला। इस युद्ध में इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके सभी साथी शहीद हो गए, लेकिन उनकी कुर्बानी व्यर्थ नहीं गई। 72 लोगों ने यज़ीद की लाखों की सेना का डटकर मुकाबला किया और दुश्मनों को भी भारी नुकसान पहुंचाया। इतना कि यज़ीद के लश्कर में कोई ऐसा घर नहीं बचा, जहां मातम न हुआ हो। इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके साथियों की शहादत के बाद भी उनके सरो और जिस्मों ने कलाम किया4। कुरआन की तिलावत की, जिसने साबित किया कि यज़ीद की जीत महज बाहरी थी, लेकिन सत्य और न्याय की जीत इमाम हुसैन (अ.स.) की थी।
कर्बला की जंग एक ऐसी मिसाल है, जहां शहादत का जाम पीने वाले जिंदा रहे और उनका संदेश आज भी हर दिल में गूंजता है। यज़ीद जैसे लोग, जो बाहरी तौर पर जीते, वास्तव में हार गए, जबकि इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके साथी अल्लाह की नजरों में सुर्खरू हैं। उनकी कुर्बानी ने सत्य, न्याय, और इंसानियत का पैगाम दुनिया तक पहुंचाया, जो आज भी हर घर और हर जवान पर जिंदा है।
लखनऊ के इस जुलूस में ऊंट और घोड़े शामिल थे, जो इमाम हुसैन (अ.स.) के काफिले की याद दिलाते थे। हजरत अब्बास (अ.स.) का अलम, और अली असगर का झूला जुलूस की शोभा बढ़ा रहे थे। अंजुमनों ने नौहाख्वानी और सीनाजनी की।