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हजरत अब्बास अस की याद में लखनऊ की दरिया वाली मस्जिद से बरामद होगा अलम-ए-फातेह-फुरात

 

लखनऊ, 5 जुलाई । आज आठवीं मोहर्रम के पवित्र अवसर पर लखनऊ की दरिया वाली मस्जिद (केजीएमयू के पीछे) से अलम-ए-फातेह-फुरात का ऐतिहासिक जुलूस बरामद होगा। यह जुलूस हजरत अब्बास अलैहिस्सलाम की याद में निकाला जाता है, जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के भाई थे। जुलूस की शुरुआत शाम 8:00 बजे कारी मासूम रजा की तिलावत-ए-कलाम-ए-पाक से होगी, जिसके बाद मौलाना सैयद कल्बे जव्वाद नकवी मजलिस को संबोधित करेंगे। इसके पश्चात अलम-ए-फातेह-फुरात, जिसे मशालो वाला जुलूस’ भी कहा जाता है, बरामद होगा। यह जुलूस दरिया वाली मस्जिद से शुरू होकर नींबू पार्क, फूल मंडी, मेडिकल कॉलेज चौराहा होते हुए गुफरानमाब इमामबाड़ा पर समाप्त होगा। इस मार्ग पर भारी संख्या में शिया समुदाय के लोग शामिल होंगे, और “या अब्बास, या सकीना” की सदाएं बुलंद होंगी। प्रशासन ने जुलूस के लिए सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए हैं, और ट्रैफिक डायवर्जन शाम 7:00 बजे से लागू होगा। यह परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है और लखनऊ की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है।

कर्बला की शहादत और इमाम हुसैन की कुर्बानी,सत्य और हक की पहचान

आज आठवां मोहर्रम कर्बला की उस ऐतिहासिक और दुखद घटना की याद दिलाता है, जिसने इस्लाम के सही और गलत स्वरूप को दुनिया के सामने उजागर किया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का काफिला, जिसमें उनके परिवार, बच्चे, भतीजे, भांजे, बहनें और दोस्त शामिल थे, 28 रजब को मदीना से रवाना हुआ और 2 मोहर्रम को कर्बोबला पहुंचा। कर्बोबला, जिसे ‘दर्द और मुसीबत की जगह’ कहा जाता है, एक जंगल था जहां इमाम हुसैन ने यज़ीद की जुल्मी हुकूमत के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया ताकि मदीना में खून-खराबा न हो। इस काफिले में 72 लोग थे, जिनमें उनकी बहन हजरत जैनब, बेटी हजरत सकीना, बेटे अली अकबर, अली असगर, और भतीजे कासिम जैसे रिश्तेदार शामिल थे।यज़ीद की नौ लाख की फौज ने फरात नदी पर कब्जा कर लिया, जिसके कारण काफिले को पानी की आपूर्ति बंद हो गई। इमाम हुसैन ने पानी का इंतजाम करने की कोशिश की और कुछ ड्रम भरे गए, लेकिन 72 लोगों के काफिले के लिए यह पानी पर्याप्त नहीं था। सातवें मोहर्रम को खेमों में पानी की आखिरी बूंद भी खत्म हो गई, और परिवार प्यास से तड़पने लगा। हजरत अब्बास अलैहिस्सलाम, जो अपनी ताकत और बहादुरी के लिए जाने जाते थे, ईमाम हुसैन की फौज के अलंबरदार थे, यज़ीद की फौज ने दरिया तक पहुंच को असंभव बना दिया था। इमाम हुसैन ने हजरत अब्बास को जंग की इजाजत नहीं दी, क्योंकि उनकी शहादत का मकसद जुल्म के खिलाफ सत्य की जीत को स्थापित करना था, न कि हिंसा को बढ़ावा देना।10 मोहर्रम को फज्र की नमाज के बाद से अस्र तक कर्बला में शहादत का सिलसिला शुरू हुआ। इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों ने एक-एक कर अपनी जानें कुरबान कीं। इसके बाद यज़ीद की फौज ने जुल्म की सारी हदें पार कर दीं। इमाम हुसैन और उनके साथियों के सिर तीरों पर उठाए गए, और उनके परिवार की महिलाओं और बच्चों को बिना हिजाब, बिना पर्दे के घुमाया गया। यह रसूल के नवासे और उनके खानदान पर अत्याचार करने वाले कोई यहूदी, ईसाई या काफिर नहीं थे, बल्कि मुसलमानों का एक समूह था, जो यज़ीद के नेतृत्व में सत्य को झूठ और झूठ को सत्य दिखाना चाहता था।इमाम हुसैन ने यज़ीद से समझौता नहीं किया, क्योंकि उनका मकसद सही इस्लाम की पहचान कराना था। उन्होंने सही इस्लाम को दुनिया के सामने लाने के लिए अपनी और अपने खानदान की कुर्बानी दी, ताकि जालिम और मजलूम की पहचान हो सके। यज़ीद भले ही उस समय जीत गया हो, लेकिन आज, 1400 साल बाद भी, इमाम हुसैन हर दिल में जिंदा हैं, जबकि यज़ीद का नाम जुल्म का प्रतीक बन चुका है। इमाम हुसैन के पैरोकार आतंकवाद या जुल्म के खिलाफ हैं, और उनकी कुर्बानी आज भी सत्य और हक की लड़ाई का प्रतीक है। यज़ीदी सोच, जो आज आतंकवाद के रूप में इस्लाम को बदनाम करती है, उसी जुल्म का विस्तार है, जिसके खिलाफ इमाम हुसैन ने अपनी जान दी।

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