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सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: वक्फ संशोधन अधिनियम के पांच प्रमुख प्रावधानों पर रोक, मोदी सरकार के ‘संपत्ति हड़पने’ के सपनों पर पानी फेरा

ज़की भारतीय

लखनऊ, 15 सितंबर । भारतीय लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर, सुप्रीम कोर्ट ने आज एक ऐसा फैसला सुनाया है जो न केवल कानूनी किताबों में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा जाएगा, बल्कि यह जनता की दिल की गहरी आवाज को भी प्रतिबिंबित करता है। वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम की संवैधानिक वैधता को तो बरकरार रखा, लेकिन इसके पांच विवादास्पद प्रावधानों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी। यह फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के उस ‘अवैध बिल’ पर जबरदस्त करारा तमाचा है, जिसे लोकसभा और राज्यसभा में हड़बड़ी में पारित कराया गया था। मुस्लिम समुदाय की संपत्तियों पर कब्जे की कोशिश को सुप्रीम कोर्ट ने नाकाम कर दिया, और यह फैसला निश्चित रूप से उन करोड़ों भारतीयों के लिए राहत की सांस है जो धार्मिक स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकार की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं।चीफ जस्टिस बी.आर. गवई की अगुवाई वाली बेंच ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “कानून की संवैधानिकता का अनुमान हमेशा उसके पक्ष में होता है, लेकिन कुछ प्रावधान ऐसे हैं जो अल्पसंख्यक अधिकारों को ठेस पहुंचा सकते हैं।” अदालत ने विशेष रूप से उन धाराओं पर रोक लगाई जो वक्फ संपत्ति के दान (dedication of property) से जुड़ी हैं, कलेक्टर की भूमिका को बढ़ाने वाली, पांच वर्ष तक इस्लाम का अभ्यास करने की बाध्यता वाली, और गैर-मुस्लिम प्रतिनिधित्व तथा सरकारी हस्तक्षेप बढ़ाने वाली। यह फैसला वक्फ बोर्डों की स्वायत्तता को बचाने का एक बड़ा कदम है, जो मोदी सरकार के केंद्रीकृत नियंत्रण की महत्वाकांक्षाओं को धराशायी करता है।

इस फैसले की पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें वक्फ संशोधन बिल की यात्रा पर नजर डालनी होगी। यह विवादास्पद बिल पहली बार 8 अगस्त 2024 को लोकसभा में पेश किया गया था, जब अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने इसे ‘वक्फ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन’ के नाम पर संसद के पटल पर रखा। बिल का उद्देश्य बताया गया कि यह मुस्लमान वक्फ एक्ट, 1923 को निरस्त कर वक्फ एक्ट, 1995 में संशोधन लाएगा, जिसमें पारदर्शिता, तकनीकी उपयोग और जटिलताओं का समाधान शामिल होगा। लेकिन आलोचकों ने इसे मुस्लिम संपत्तियों पर सरकारी कब्जे की साजिश करार दिया। बिल को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेजा गया, जहां लंबी बहस के बाद संशोधनों के साथ अप्रैल 2025 में लोकसभा में पुनः पेश किया गया। 2 अप्रैल 2025 को लोकसभा में तीखी बहस के बीच यह पारित हो गया, और उसके बाद राज्यसभा में भी भाजपा के बहुमत के दम पर 16 अप्रैल 2025 को मंजूरी मिल गई। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इसे अधिनियम का रूप दिया, और 1 मई 2025 से यह लागू हो गया।

पारित होने के तुरंत बाद ही इस अधिनियम के खिलाफ कानूनी चुनौतियां शुरू हो गईं। कुल 73 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गईं, जिनमें कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), और प्रमुख विपक्षी दलों के सांसद शामिल थे। सबसे प्रमुख याचिकाकर्ताओं में एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी, आरजेडी के राज्यसभा सांसद मनोज झा और फैयाज अहमद, तथा कई मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधि थे। लेकिन इनमें एक नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है – कृष्णा हुसैन, एक वरिष्ठ मुस्लिम वकील और सामाजिक कार्यकर्ता, जिन्होंने अप्रैल 2025 के अंत में अपनी याचिका दायर की। कृष्णा हुसैन, जो लखनऊ के एक प्रमुख वक्फ ट्रस्ट के प्रबंधक हैं, ने अपनी पेटीशन में तर्क दिया कि यह अधिनियम अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 25 (धार्मिक स्वतंत्रता), और 26 (धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन का अधिकार) का सीधा उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि पांच वर्ष तक इस्लाम का अभ्यास करने की शर्त लगाना धार्मिक अभ्यास को बाधित करता है, और कलेक्टर को वक्फ संपत्ति के निर्धारण का अधिकार देना सरकारी हस्तक्षेप को आमंत्रित करता है, जो मुस्लिम संपत्तियों को ‘छीनने’ की कोशिश है। कृष्णा की याचिका में विस्तार से उदाहरण दिए गए थे, जैसे उत्तर प्रदेश के कई वक्फ ट्रस्ट जहां सरकारी अधिकारी बिना ठोस आधार के संपत्तियों पर दावा ठोक रहे थे।

याचिकाकर्ताओं के अन्य प्रमुख तर्कों में शामिल थे कि अधिनियम मुस्लिम संपत्तियों को ‘गैर-मुस्लिम’ दावेदारों के लिए खोल देता है, और सरकारी नियुक्ति से वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम प्रतिनिधित्व बढ़ाना अल्पसंख्यक संस्थाओं की स्वायत्तता को कमजोर करता है। उन्होंने ऐतिहासिक संदर्भ भी दिया कि वक्फ की अवधारणा इस्लाम के आगमन के साथ भारत में आई, और यह मुस्लिम समुदाय की धार्मिक दान परंपरा का हिस्सा है। एक याचिका में कहा गया कि यह बिल ‘राजनीतिक और नौकरशाही नियंत्रण’ की दिशा में एक कदम है, जो लंबे समय में धार्मिक संपत्तियों को राज्य के हवाले कर देगा।

सरकार का पक्ष इससे बिल्कुल उलट था। सॉलिसिटर जनरल ने तर्क दिया कि अधिनियम का उद्देश्य वक्फ संपत्तियों के ‘दुरुपयोग’ को रोकना है, जहां कई जगहों पर अवैध कब्जे हो चुके हैं। उन्होंने कहा कि पांच वर्ष की इस्लाम अभ्यास शर्त ‘प्रामाणिकता’ सुनिश्चित करने के लिए है, ताकि कोई भी मनमाने ढंग से वक्फ न बना सके। कलेक्टर की भूमिका को ‘तटस्थ जांच’ का नाम दिया गया, और गैर-मुस्लिम प्रतिनिधित्व को ‘समावेशी’ बताया गया। सरकार ने दावा किया कि यह बिल पारदर्शिता लाएगा, डिजिटल रिकॉर्डिंग से संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन होगा, और जेपीसी की सिफारिशों के अनुरूप है। लेकिन आलोचकों ने इसे ‘मुस्लिम संपत्तियों पर अधिकार जताने’ की साजिश कहा, जहां राज्य ट्रस्टों को अपने अधीन कर लेगा। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 9 लाख से अधिक वक्फ संपत्तियां हैं, जिनकी कीमत अरबों में है, और सरकार का यह कदम इन्हें ‘राष्ट्रीयकरण’ की दिशा में ले जा सकता था।

सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई अप्रैल 2025 से चली आ रही थी, जब 16 अप्रैल को पहली बार 73 याचिकाओं पर विचार हुआ। अदालत ने कई बार केंद्र सरकार को नोटिस जारी किए, और जुलाई में अंतरिम राहत पर बहस हुई। लेकिन आज, 15 सितंबर 2025 को, फैसला आया। बेंच ने कहा कि पूरे अधिनियम पर रोक ‘दुर्लभतम मामलों’ में ही लगाई जा सकती है, लेकिन विशिष्ट प्रावधानों पर स्टे जरूरी है। विशेष रूप से:पांच वर्ष इस्लाम अभ्यास की शर्त (धारा 3A): यह प्रावधान तत्काल प्रभाव से निलंबित। अदालत ने इसे ‘अनावश्यक बाधा’ करार दिया, जो धार्मिक अभ्यास को सीमित करता है।

संपत्ति दान संबंधी प्रावधान (धारा 4): वक्फ बनाने के लिए संपत्ति के दान पर लगी शर्तों को होल्ड किया गया, क्योंकि यह मुस्लिम दान परंपरा को प्रभावित करता है।
कलेक्टर की भूमिका (धारा 12): जिला कलेक्टर को वक्फ संपत्ति निर्धारित करने का अधिकार निलंबित, जो सरकारी हस्तक्षेप का प्रतीक था।
गैर-मुस्लिम प्रतिनिधित्व (धारा 9): वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति पर रोक, ताकि अल्पसंख्यक संस्थाओं की स्वायत्तता बनी रहे।
सरकारी अधिग्रहण प्रक्रिया (धारा 40): विवादित संपत्तियों पर सरकारी दावा ठोकने की प्रक्रिया को स्थगित, जो ‘छीनने’ की आशंका पैदा कर रही थी।

यह फैसला न केवल कानूनी जीत है, बल्कि सामाजिक न्याय की मिसाल भी। कांग्रेस नेता इमरान प्रतापगढ़ी ने ट्वीट किया, “सुप्रीम कोर्ट ने साबित कर दिया कि संविधान अल्पसंख्यकों का ढाल है। हम लड़ते रहेंगे।”
आरजेडी के मनोज झा ने कहा, “यह मोदी सरकार की सांप्रदायिक राजनीति पर पहला बड़ा झटका है।” दूसरी ओर, भाजपा ने इसे ‘आंशिक राहत’ बताते हुए कहा कि अधिनियम की मूल भावना बरकरार है। लेकिन सड़कों पर उतर आए मुस्लिम संगठनों ने इसे ‘जनता की जीत’ करार दिया। लखनऊ की मस्जिदों से लेकर दिल्ली के जामा मस्जिद तक, प्रार्थनाओं में कोर्ट का शुक्राना अदा किया गया।इस फैसले के दूरगामी प्रभाव होंगे। वक्फ संपत्तियां, जो शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन के लिए उपयोग होती हैं, अब सरकारी लोलुपता से सुरक्षित रहेंगी। विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला अन्य अल्पसंख्यक कानूनों के लिए मिसाल बनेगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार अब भी अपने ‘सपनों’ को पूरा करने की कोशिश करेगी? या यह फैसला लोकतंत्र की मजबूती का प्रतीक बनेगा? समय ही बताएगा, लेकिन आज, सुप्रीम कोर्ट ने साबित कर दिया कि न्याय की तुला में कोई भी ‘प्रधानमंत्री का आदेश’ भारी नहीं पड़ सकता।

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