ज़की भारतीय
भारतीय लोकतंत्र की नींव चार प्रमुख स्तंभों पर टिकी हुई है: कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया। इनमें से नौकरशाही कार्यपालिका का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो जनता की सेवा के लिए नियुक्त की जाती है। लेकिन आज की स्थिति देखें तो लगता है कि अधिकारियों ने अपनी पद की गरिमा को या तो ताक पर रख दिया है या फिर जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया है। अधिकतर नौकरशाह सरकारी नौकरी में रहते हुए जनता के लिए नहीं, बल्कि सत्ताधारी नेताओं की चापलूसी में लगे रहते हैं। वे मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या किसी भी स्तर के मंत्रियों के इशारों पर नाचते हैं, यह सोचकर कि वे उनके नौकर हैं और किसी भी समय हटाए जा सकते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि अगर उन्हें हटाया भी जाता है, तो सिर्फ ट्रांसफर होगा – एक शहर से दूसरे में, एक पद से दूसरे पर। ट्रांसफर तो वैसे भी 3-5 साल में हो ही जाता है। फिर क्यों न वे जनता के सेवक बनें, जिसने उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी है? यह चापलूसी की राजनीति और प्रणाली को खत्म करना बहुत जरूरी है, क्योंकि अगर नौकरशाही सरकार के इशारों पर काम करने लगेगी, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो जाएंगी। इस लेख में हम इस समस्या की गहराई में उतरेंगे, उदाहरणों के साथ विश्लेषण करेंगे, विशेष रूप से चुनाव आयोग पर लगते आरोपों और वोट चोरी के मामलों पर फोकस करेंगे, तथा सुधार के सुझाव देंगे।नौकरशाही की गिरती गरिमा और चापलूसी का जहरआज की नौकरशाही में एक बड़ी समस्या यह है कि अधिकारी जनता के काम नहीं आते। वे सत्ता के केंद्रों में रहकर अपने हित साधते हैं। उदाहरण के लिए, केंद्रीय जांच एजेंसियां जैसे सीबीआई और ईडी पर आरोप लगते हैं कि वे सरकार के इशारों पर काम करती हैं। विपक्षी नेताओं पर छापे, गिरफ्तारियां – यह सब राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित लगता है। राज्य स्तर पर भी यही हाल है। जिला अधिकारी (डीएम) की जिम्मेदारी जिले के नागरिकों की होती है। अगर कोई नियम अनुसार कार्य नहीं हो रहा, तो डीएम को कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन वे मुख्यमंत्री के इशारों पर काम करते हैं। इसी तरह, नगर निगम, विकास प्राधिकरण जैसे लखनऊ विकास प्राधिकरण, आगरा विकास प्राधिकरण या कानपुर विकास प्राधिकरण में काम सरकार के इशारों पर चलते हैं। नौकरशाह पार्टी कार्यकर्ताओं की तरह व्यवहार करते हैं, जबकि वे जनता के सेवक हैं।
यह जहर अब धीरे-धीरे लोकतंत्र के उच्च स्तर तक पहुंच गया है। न्यायपालिका, जो अंतिम उम्मीद का स्तंभ है, वहां भी कमियां दिख रही हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में कभी-कभी पक्षपात की झलक मिलती है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार हाईकोर्ट के आदेशों को रोका है। उदाहरण के लिए, एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक जज की कार्रवाई पर रोक लगा दी और कहा कि वे उस मामले में आगे आदेश नहीं दे सकते। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भी टिप्पणियां आती हैं, लेकिन न्यायपालिका के खिलाफ बोलना गलत है। फिर भी, अगर जज भी आम नौकरशाहों की तरह मानसिकता रखेंगे, तो जनता का विश्वास डगमगा जाएगा। जनता को यह सुकून रहता है कि अगर विभागीय अधिकारी न्याय नहीं करेंगे, तो न्यायपालिका करेगी। लेकिन अब उसमें कमी आ रही है।अगर न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया सब बिकते चले गए, तो जनता की सुनवाई कौन करेगा? भारत के पांचों स्तंभों (पत्रकारिता को मिलाकर) में सुधार जरूरी है। अन्यथा, अवस्था पहले से भी बदतर हो जाएगी।
राजनीतिक हलचल और चुनाव आयोग पर लगते आरोप: वोट चोरी का मामला
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में विपक्षी दल जैसे कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी पार्टियां एकजुट हो रही हैं। वे चुनाव आयोग (ईसीआई) पर आरोप लगा रही हैं कि वह भाजपा का कार्यकर्ता बनकर लोकतंत्र पर हमला कर रहा है। चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है। उदाहरण के लिए, ईवीएम पर सवाल उठते हैं। कहा जाता है कि वोटों में हेरफेर होती है – एक उम्मीदवार को जनता 5 लाख वोट देती है, लेकिन फर्जी वोटों से 2 लाख वाला जीत जाता है। विधायक या सांसद जनता के वोट से जीतते हैं, लेकिन सत्ता के दबाव में हार जाते हैं। यह लोकतंत्र की मर्यादा पर हमला है।2024 लोकसभा चुनावों के बाद से “वोट चोरी” का मुद्दा जोरों पर है। राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि ईसीआई ने लाखों वोट चुराए, खासकर गरीबों के। उन्होंने कहा कि बिहार में 65 लाख वोटर्स के नाम डिलीट किए गए, जो जिंदा हैं लेकिन “मृत” घोषित कर दिए गए।
महाराष्ट्र असेंबली चुनाव 2024 में 39-50 लाख नए वोटर्स ऐड हुए, जो संदिग्ध है और परिणाम प्रभावित कर सकता था।
कर्नाटक में 1 लाख फर्जी वोटर्स का आरोप है। ईसीआई ने इन आरोपों का खंडन किया, लेकिन पारदर्शिता की कमी से सवाल बढ़े। उदाहरण के लिए, वोटर टर्नआउट डेटा 11 दिनों तक देरी से जारी हुआ, और 5-6% की बढ़ोतरी बिना स्पष्टीकरण के।
बिहार में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के दौरान लाखों नाम डिलीट हुए, विपक्षी गढ़ों में। सुप्रीम कोर्ट ने ईसीआई को डिजिटल डेटा जारी करने का आदेश दिया।
ईसीआई ने राहुल गांधी से एफिडेविट मांगा, लेकिन भाजपा के अनुराग ठाकुर पर समान आरोपों पर चुप्पी साधी।
महाराष्ट्र में वोट फॉर डेमोक्रेसी रिपोर्ट ने अनियमितताएं उजागर कीं, जहां वोटर डुप्लीकेशन और फास्ट पोलिंग से 79 सीटें प्रभावित हुईं।
पनवेल में वोटर डुप्लीकेशन का मामला सामने आया, जहां फर्जी एंट्रीज से परिणाम बदले।
ईसीआई पर भाजपा से सांठगांठ के आरोप हैं, जैसे 2023 एक्ट से सीजेआई को हटाना, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, और सीसीटीवी फुटेज 45 दिनों में डिलीट करने की पॉलिसी।
विपक्ष का कहना है कि अगर कोई रिगिंग नहीं होती, तो इंडिया गठबंधन 316 सीटें जीतता।
ईसीआई ने कहा कि आरोप “झूठे और भ्रामक” हैं, लेकिन डिजिटल डेटा न देने से संदेह बढ़ा।
यह मुद्दा 2025 बिहार चुनावों से पहले और गर्म है, जहां विपक्ष ने वोट चोरी रोकने का संकल्प लिया।
मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण
आज ‘गोदी मीडिया’ का कलंक लगा है। मीडिया को सच्चाई लिखनी चाहिए, बोलनी चाहिए। अगर मीडिया आंखें बंद करके सत्ता की गुलामी करेगा, तो जनता को न्याय कैसे मिलेगा? कलम सच्चाई लिखने के लिए दी गई है, न कि किसी पार्टी के पक्ष में। मीडिया को भाजपा या कांग्रेस का विरोधी नहीं करना चाहिए, बल्कि गलत प्रणाली के खिलाफ खड़ा होना चाहिए – चाहे वह बीजेपी हो, कांग्रेस हो, समाजवादी पार्टी हो, राष्ट्रीय लोकदल हो या कोई अन्य पार्टी। गलत के खिलाफ लिखना जरूरी है, तभी जनता को न्याय मिलेगा। अन्यथा, जनता ठगी जाती रहेगी और जिम्मेदारी इन स्तंभों पर आएगी।जो सुधार करेगा, इतिहास में उसका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। पुराने क्रांतिकारियों की प्रशंसा होती है, जबकि देशद्रोहियों की आलोचना। गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को आज भी बुरा कहा जाता है। इसी तरह, जेल से छूटने के लिए पत्र लिखने वाले और फांसी मांगने वाले – दोनों की यादें अलग हैं। इसलिए, ऐसे कार्य करें कि इतिहास में सम्मान मिले।
एक साहसी अधिकारी की मिसाल:बरेली का डीएम
समस्या के समाधान के लिए इतिहास से सीख लें। एक पूर्व आईएएस अधिकारी की कहानी है, जो बरेली में पोस्टेड थे। उस समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे। तिवारी जी से उनकी रंजिश थी। मुख्यमंत्री जब कार्यालय में बुलाते, तो अधिकारी को खड़ा रखते। एक सीनियर आईएएस को मुख्यमंत्री के सामने खड़ा रहना पड़ता, क्योंकि हिम्मत नहीं होती बैठने की। लेकिन यह सोचना चाहिए कि मुख्यमंत्री जनता द्वारा चुना गया है, न कि कोई राजा। अधिकारी ने ठान लिया कि वह बदला लेंगे।कुछ समय बाद उनका ट्रांसफर हो गया, लेकिन चुनाव नजदीक थे। तिवारी जी का बरेली में बड़ा जलसा था। डीएम ने शहर के चारों तरफ नाकेबंदी कर दी, पूरी फोर्स लगा दी। मुख्यमंत्री का काफिला रोक दिया गया। तिवारी जी ने कहा, “मैं मुख्यमंत्री हूं,” लेकिन अधिकारी ने कहा, “सर का आदेश नहीं है।” मोबाइल से बात हुई, लेकिन डीएम ने उन्हें 2 घंटे इंतजार कराया। गर्मी बहुत थी, लेकिन डीएम अपने कार्यालय में बैठे रहे। आखिर में आए और कहा, “आपकी जान को खतरा है, इंटेलिजेंस रिपोर्ट है। मैं अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूं।” तिवारी जी समझ गए कि यह साजिश है, लेकिन डीएम नहीं माने। आखिर काफिले को वापस जाना पड़ा। उसके बाद अधिकारी का ट्रांसफर सीतापुर हो गया, लेकिन उन्होंने साबित कर दिया कि अधिकारी सत्ता से डरते क्यों हैं? ट्रांसफर तो होगा ही, लेकिन गरिमा बनी रहेगी।अगर सभी अधिकारी ऐसी हिम्मत दिखाएं, तो गुंडे-माफिया जैसे नेता जो 15-18 मुकदमों के साथ एमएलए बनते हैं, या सैकड़ों मुकदमों में फंसे मंत्री बनते हैं, वे सुधर जाएंगे।
न्यायपालिका और अधिकारियों की भूमिका
न्यायपालिका पर भी दबाव है। अगर जज सत्ता के प्रभाव में आएंगे, तो जनता को न्याय नहीं मिलेगा। अधिकारियों को याद रखना चाहिए कि वे जीवन भर मेहनत करके आईएएस, आईपीएस, पीसीएस बनते हैं। डॉक्टर, इंजीनियर बनते हैं। फिर अशिक्षित जनप्रतिनिधियों के हाथों कठपुतली क्यों बनें?
जनप्रतिनिधि जीतकर आते हैं, लोकतंत्र है। वे अपना काम करें, लेकिन अधिकारियों को गुलाम बनाना गलत है।लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का सम्मान है, लेकिन अधिकारी की गरिमा भी बनी रहनी चाहिए। एक 8वीं या 10वीं पास नेता के सामने पढ़ा-लिखा अधिकारी खड़ा रहे, यह उसकी शिक्षा पर खतरा है। सुधार की जरूरत है। अधिकारियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनना चाहिए, न कि सत्ता के।
सुधार की आवश्यकता
भारतीय लोकतंत्र को बचाने के लिए नौकरशाही, न्यायपालिका, राजनीति और मीडिया में सुधार जरूरी है। चापलूसी का जहर खत्म हो, अधिकारी जनता के सेवक बनें। मीडिया सच्चाई लिखे। न्यायपालिका निष्पक्ष रहे। राजनीति में अपराधियों का प्रवेश रोका जाए। चुनाव आयोग पर लगते आरोपों से पारदर्शिता बढ़े, वोट चोरी रोकने के लिए ईवीएम की जगह पेपर बैलट पर विचार हो। अगर ऐसा हुआ, तो जनता का विश्वास बनेगा। अन्यथा, इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। हमें ऐसे उदाहरणों से सीखना चाहिए जैसे बरेली के उस अधिकारी ने दिखाया। आखिर में, लोकतंत्र जनता का है, जनता के लिए। इसे बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है।