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उत्तर प्रदेश की राजनीति और विकास में सपा और भाजपा का तुलनात्मक विश्लेषण

ज़की भारतीय

उत्तर प्रदेश, भारत का हृदयस्थल, अपनी सांस्कृतिक समृद्धि और राजनीतिक उथल-पुथल के लिए जाना जाता है। पिछले डेढ़ दशक में, यहाँ समाजवादी पार्टी (सपा) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकारों ने शासन किया, जिनके नीतिगत निर्णयों और कार्यशैली ने प्रदेश के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को गहराई से प्रभावित किया। यह लेख सपा (2012-2017) और भाजपा (2017-वर्तमान) सरकारों के बीच सरकारी नौकरियों, पेंशन नीतियों, सामाजिक माहौल, नफरत की राजनीति और विकास कार्यों की तुलना करता है। साथ ही, यह प्रश्न उठाता है कि क्या वर्तमान सामाजिक वैमनस्य के लिए प्रदेश और देश के नेतृत्व की जिम्मेदारी बनती है और विकास के मामले में किस सरकार का दौर बेहतर रहा।

सरकारी नौकरियाँ और पेंशन नीतियाँ: सपा बनाम भाजपा

सपा सरकार (2012-2017) के दौरान, अखिलेश यादव ने युवाओं को रोजगार देने पर जोर दिया। पुलिस भर्ती, शिक्षक भर्ती और अन्य सरकारी नौकरियों में लाखों पद भरे गए। हालाँकि, कुछ भर्ती प्रक्रियाएँ विवादों में घिरीं और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2015 की पुलिस भर्ती को रद्द कर दिया, जिससे सपा की छवि को धक्का लगा। फिर भी, सपा ने मनरेगा जैसे ग्रामीण रोजगार और शहरी क्षेत्रों में ‘अर्बन एम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट’ जैसे वादों के जरिए रोजगार सृजन पर ध्यान केंद्रित किया।दूसरी ओर, भाजपा सरकार ने 2017 में सत्ता संभालने के बाद सरकारी नौकरियों में पारदर्शिता का दावा किया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दावा किया कि उनकी सरकार ने 60% से अधिक नौकरियाँ ओबीसी और एससी-एसटी वर्गों को दीं। हालाँकि, आलोचकों का कहना है कि भाजपा सरकार ने नई भर्तियों की तुलना में संविदा और आउटसोर्सिंग को बढ़ावा दिया, जिससे नौजवानों में असंतोष बढ़ा। उदाहरण के लिए, कोरोना काल में नियुक्त ‘कोरोना वॉरियर्स’ को 2024 में नौकरी से निकाल दिया गया, जिसके खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हुए।

पेंशन नीतियों में भी था स्पष्ट अंतर

सपा सरकार ने पुरानी पेंशन योजना को बनाए रखा, जो कर्मचारियों के लिए आर्थिक सुरक्षा का आधार थी। लेकिन 2004 में केंद्र की भाजपा सरकार ने नेशनल पेंशन सिस्टम (एनपीएस) लागू कर पुरानी पेंशन को समाप्त कर दिया, जिसे योगी सरकार ने भी जारी रखा। एनपीएस के तहत कर्मचारियों को बाजार जोखिमों का सामना करना पड़ता है, जिससे असंतोष बढ़ा। सपा ने 2022 के घोषणापत्र में पुरानी पेंशन बहाली का वादा किया, जो कर्मचारियों में लोकप्रिय रहा।

सामाजिक माहौल और नफरत की राजनीति

पिछले 15 वर्षों में उत्तर प्रदेश में सामाजिक तनाव और धार्मिक नफरत का माहौल बढ़ा है। सपा सरकार पर आरोप था कि वह ‘तुष्टिकरण’ की नीति अपनाती थी, जिससे कुछ समुदायों में असंतोष बढ़ा। मगर, सांप्रदायिक हिंसा को नियंत्रित करने में सपा ने सक्रियता दिखाई, जैसे कि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद राहत और पुनर्वास के प्रयास।भाजपा सरकार के दौर में, धार्मिक आधार पर हिंसा और भेदभाव की घटनाएँ बढ़ी हैं। ‘लव जिहाद’, ‘गौ रक्षा’ और ‘नाम पूछकर हमले’ जैसी घटनाएँ सुर्खियों में रहीं। मुस्लिम समुदाय के खिलाफ टोपी उतारने, दाढ़ी खींचने या जबरन ‘जय श्री राम’ बुलवाने की घटनाएँ सामाजिक तनाव का प्रतीक बनीं। आलोचकों का मानना है कि भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों की ‘हिंदुत्व’ की आक्रामक नीति ने समाज को ध्रुवीकृत किया। सवाल यह है कि क्या प्रदेश का नेतृत्व इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार है? योगी सरकार ने सख्त कानून-व्यवस्था का दावा किया, मगर सामाजिक नफरत को रोकने में निष्क्रियता की आलोचना हुई। क्या मुख्यमंत्री को आँखें खोलकर ऐसी घटनाओं पर तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए, या एक पक्ष का समर्थन और दूसरे का दमन प्रदेश को और विभाजित करेगा?

विकास कार्य: कौन रहा अव्वल?

विकास के मोर्चे पर, सपा सरकार ने लखनऊ मेट्रो, आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे और ग्रामीण बुनियादी ढांचे पर ध्यान दिया। अखिलेश की ‘समाजवादी’ योजनाएँ, जैसे मुफ्त लैपटॉप और साइकिल वितरण, युवाओं और छात्रों में लोकप्रिय रहीं। हालाँकि, सपा पर भ्रष्टाचार और ‘परिवारवाद’ के आरोप लगे।भाजपा सरकार ने बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा परियोजनाएँ शुरू कीं, जैसे गंगा एक्सप्रेसवे, जेवर हवाई अड्डा और लखनऊ-कानपुर आर्थिक कॉरिडोर। ‘डबल इंजन’ सरकार का दावा है कि उसने निवेश और औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया। मगर, ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी और स्वास्थ्य-शिक्षा में निवेश की कमी की शिकायतें बनी रहीं। कांग्रेस की सरकार (2004-2012 में केंद्र में प्रभावी) के दौर में मनरेगा और ग्रामीण विकास योजनाएँ उत्तर प्रदेश में प्रभावी थीं, जो सपा और भाजपा की तुलना में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में अधिक सफल रहीं।

सबसे बेहतर दौर: किसका?

तीनों सरकारों की तुलना करें तो सपा का दौर (2012-2017) रोजगार और सामाजिक समावेश के मामले में बेहतर था, मगर कानून-व्यवस्था और भ्रष्टाचार के आरोपों ने उसकी चमक फीकी कर दी। भाजपा का दौर (2017-वर्तमान) बुनियादी ढांचे और निवेश में आगे रहा, लेकिन सामाजिक ध्रुवीकरण और नौकरियों में संविदा प्रथा ने नुकसान पहुँचाया। कांग्रेस के प्रभाव वाले दौर में ग्रामीण विकास और सामाजिक कल्याण योजनाएँ प्रभावी थीं, जो दीर्घकालिक लाभकारी रहीं।तार तार होती प्रदेश की गंगा-जमुनी तहजीब

प्रदेश को सामाजिक नफरत और ध्रुवीकरण से बचाएं

एकता और प्रगति का रास्ता उत्तर प्रदेश को सामाजिक नफरत और ध्रुवीकरण से बचाने के लिए नेतृत्व को सक्रिय और निष्पक्ष होना होगा। नफरत की घटनाओं पर कठोर कार्रवाई, समावेशी नीतियाँ और रोजगार सृजन ही प्रदेश को प्रगति के पथ पर ले जा सकता है। सपा और भाजपा, दोनों ने अपने-अपने तरीके से विकास को गति दी, मगर सामाजिक सौहार्द और आर्थिक समानता के बिना यह अधूरा है। प्रदेश के मुखिया की जिम्मेदारी है कि वह समाज को जोड़े, न कि तोड़े। आखिरकार, उत्तर प्रदेश की आत्मा उसकी गंगा-जमुनी तहजीब में बसती है, जिसे हर कीमत पर संरक्षित करना होगा।

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