ज़की भारतीय
लखनऊ, 25 जून । ईरान और इज़राइल के बीच 13 जून 2025 से शुरू हुआ युद्ध और हालिया युद्धविराम की खबरें अंतरराष्ट्रीय, भारतीय, और सोशल मीडिया पर तूफान की तरह फैल रही हैं। सोशल मीडिया पर दावा है कि ईरान ने युद्धविराम के लिए पांच कठोर शर्तें रखीं—ग़ज़ा से इज़राइली सेना की पूर्ण वापसी, ग़ज़ा की नाकेबंदी समाप्त करना, तबाह बस्तियों का पुनर्निर्माण, लेबनान से इज़राइली सेना की वापसी, और ईरान-अमेरिका के बीच परमाणु समझौते सहित अन्य मुद्दों पर बातचीत। ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्ला अली खामेनेई को मज़लूमों के पक्ष में अडिग योद्धा बताया जा रहा है, जबकि इज़राइल पर ग़ज़ा, लेबनान, और ईरान में अत्याचार और क्षेत्रीय “मोनोपोली” स्थापित करने का आरोप है। अंतरराष्ट्रीय और भारतीय मीडिया पर पक्षपात का इल्ज़ाम लग रहा है, जिसमें अल जज़ीरा को सबसे निष्पक्ष माना जा रहा है, क्योंकि उसने इज़राइल की आक्रामकता और ग़ज़ा-लेबनान में अत्याचारों को बेनकाब किया। इस खबर में हम अंतरराष्ट्रीय, भारतीय, और स्थानीय मीडिया के रुख का विश्लेषण करेंगे, सोशल मीडिया दावों की सत्यता जांचेंगे, और यह समझेंगे कि युद्ध का भविष्य क्या हो सकता है।
स्थानीय और भारतीय मीडिया का रुख और झुकाव
भारतीय और स्थानीय मीडिया ने इस युद्ध को कवर करते समय इज़राइल के पक्ष में स्पष्ट झुकाव दिखाया, जो ग़ज़ा-लेबनान में इज़राइल के अत्याचारों को नजरअंदाज करता है और ईरान को खलनायक बनाता है।
प्रमुख समाचार स्रोतों का विश्लेषण इसकी पुष्टि करता है
आज तक: इज़राइल के तेहरान में ड्रोन हमलों और ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी बमबारी को “रणनीतिक सफलता” और “सटीक ऑपरेशन” के रूप में प्रस्तुत किया। ईरान के जवाबी हमलों को “आक्रामक” और “अस्पतालों पर हमला” जैसे नकारात्मक शब्दों में चित्रित किया। ग़ज़ा में इज़राइली नाकेबंदी, जिसके कारण लाखों बच्चों और महिलाओं को दवा-खाना नहीं मिल रहा, या लेबनान में हिज़्बुल्लाह नेता हसन नसरुल्ला की हत्या की कोई आलोचना नहीं की गई। कासिम सुलेमानी (2020) और ईरानी वैज्ञानिकों पर इज़राइली हमलों का ज़िक्र तक नहीं।
एनडीटीवी: 24 जून 2025 को डोनाल्ड ट्रंप के 12 घंटे के युद्धविराम के टूटने और इज़राइल की मिसाइल रक्षा प्रणालियों की तारीफ की। ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराघची के बयान को शामिल किया, लेकिन इज़राइल की सैन्य ताकत को “उन्नत” और “प्रभावी” बताया। ग़ज़ा में अस्पतालों पर बमबारी या लेबनान में नागरिकों की हत्या जैसे मुद्दों को नजरअंदाज किया गया।
जनसत्ता और न्यूज़18: इज़राइल के हमलों को “सटीक” और नेतन्याहू के बयानों को प्रमुखता दी। ईरान के हमलों को “बदले की कार्रवाई” और “आतंकवादी समर्थक” बताया, जो उनकी कार्रवाइयों को कमज़ोर दिखाता है। ग़ज़ा में मानवीय संकट या लेबनान में इज़राइली हमलों का कोई गहरा विश्लेषण नहीं।
दैनिक भास्कर और नवभारत टाइम्स: इज़राइल को “रक्षात्मक” और “तकनीकी रूप से श्रेष्ठ” दिखाया, जबकि ईरान को “अस्थिर करने वाला” बताया। इज़राइल की ऐतिहासिक आक्रामकता, जैसे कासिम सुलेमानी की हत्या या ग़ज़ा में नाकेबंदी, को छिपाया गया।
झुकाव और किरदार: भारतीय मीडिया का रुख इज़राइल और अमेरिका के पक्ष में रहा, जो भारत-इज़राइल के मजबूत रक्षा संबंधों और पश्चिमी स्रोतों (बीबीसी, रॉयटर्स) पर निर्भरता को दर्शाता है। इज़राइल को “पीड़ित” और “रक्षात्मक” दिखाया गया, जबकि ईरान को “आक्रामक” और “खलनायक”। ग़ज़ा में बच्चों-महिलाओं पर बमबारी, अस्पतालों की तबाही, और लेबनान में नागरिकों की हत्या को “सुरक्षा उपाय” बताकर ढकने की कोशिश की गई। यह “गोदी मीडिया” के आरोप को सही ठहराता है, जहां मीडिया सरकारी और कॉरपोरेट हितों से प्रभावित है।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया का रुख और झुकाव
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में निष्पक्षता की कमी साफ दिखती है। बीबीसी और रॉयटर्स इज़राइल-अमेरिका के पक्ष में झुके हुए हैं, जबकि अल जज़ीरा ने सत्य को सबसे करीब से उजागर किया, क्योंकि उसने इज़राइल की आक्रामकता और मज़लूमों पर अत्याचार को बेनकाब किया।
अल जज़ीरा ने की है सत्य के नज़दीक आकर रिपोर्टिंग
अल जज़ीरा ने हाइफा में ईरानी मिसाइल हमलों से हुए नुकसान को कवर किया और ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्ला अली खामेनेई के बयानों को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया, जैसे फिलिस्तीन और लेबनान के प्रति उनकी दृढ़ता। इसने ग़ज़ा में इज़राइली नाकेबंदी, जिसके कारण लाखों बच्चों और महिलाओं को दवा, खाना, और बिजली नहीं मिल रही, की कड़ी आलोचना की। लेबनान में हिज़्बुल्लाह नेता हसन नसरुल्ला की हत्या और नागरिकों पर हमलों को “अत्याचार” बताया। ग़ज़ा में अस्पतालों पर बमबारी, खुले में इलाज कर रहे मरीजों की हत्या, और डॉक्टरों पर हमले जैसे मुद्दों को उजागर किया। कतर में अमेरिकी सैन्य अड्डे पर ईरान के मिसाइल हमले को इज़राइल-अमेरिका की आक्रामकता का जवाब बताया।
अल जज़ीरा ने गलत को गलत और सही को सही कहा। इसने इज़राइल की आक्रामकता, ग़ज़ा-लेबनान में अत्याचार, और ईरान के जवाबी हमलों को संतुलित रूप से कवर किया। इसने इज़राइल के पहले हमले (13 जून 2025) और ऐतिहासिक अत्याचारों—जैसे कासिम सुलेमानी की हत्या (2020), ईरानी वैज्ञानिकों पर हमले, और हसन नसरुल्ला की हत्या—का संदर्भ दिया। हालांकि, इसका झुकाव ईरान और फिलिस्तीन की ओर है, लेकिन यह सत्य के करीब है, क्योंकि गलत को गलत कहना पत्रकारिता का धर्म है।
अल जज़ीरा ने मज़लूम की आवाज़ उठाई और इज़राइल की ज़ालिम साज़िशों को बेनकाब किया। इसने इज़राइल की “मोनोपोली” और अमेरिका के समर्थन से छोटे देशों पर अत्याचार की मंशा को सामने लाया।
बीबीसी ने की पश्चिमी पक्षपात की रिपोर्टिंग
बीबीसी ने 24 जून 2025 को डोनाल्ड ट्रंप के 12 घंटे के युद्धविराम के ऐलान और इसके टूटने की खबर दी। इसने दावा किया कि इज़राइल ने ईरान के तेल और परमाणु ठिकानों पर हमले से परहेज किया ताकि युद्ध न बढ़े। इज़राइल की मिसाइल रक्षा प्रणालियों को “उन्नत” और “प्रभावी” बताया, जबकि ईरान के जवाबी हमलों को “मामूली नुकसान” करने वाला कहा। ग़ज़ा में नाकेबंदी, लेबनान में नागरिकों पर हमले, या इज़राइल की ऐतिहासिक आक्रामकता (कासिम सुलेमानी, हसन नसरुल्ला की हत्या) का कोई ज़िक्र नहीं।
बीबीसी ने इज़राइल को “रक्षात्मक” और ईरान को “आक्रामक” दिखाया। इसने इज़राइली और अमेरिकी बयानों को अधिक स्थान दिया, जैसे युद्ध को इज़राइल की “सैन्य उपलब्धि” बताना। ग़ज़ा में बच्चों-महिलाओं पर बमबारी या लेबनान में अत्याचार को नजरअंदाज किया गया। यह पश्चिमी हितों से प्रभावित है।
बीबीसी ने दोनों पक्षों के बयानों को शामिल करने की कोशिश की, लेकिन इसका झुकाव इज़राइल-अमेरिका की ओर है। यह गलत को गलत कहने में असफल रहा, क्योंकि इसने इज़राइल की आक्रामकता को “रणनीतिक” और वैध ठहराया। बीबीसी ने इज़राइल की साज़िशों को ढकने और पश्चिमी प्रचार को बढ़ावा देने का काम किया।
रॉयटर्स का तटस्थता का दिखावा, पश्चिमी झुकाव
रॉयटर्स ने कतर में युद्धविराम वार्ता और ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराघची के बयान (कोई औपचारिक समझौता नहीं) को कवर किया। इसने इज़राइल के रक्षा मंत्री के बयान शामिल किए, जो युद्धविराम उल्लंघन का आरोप लगाकर तेहरान पर हमले की बात करते हैं। कतर में अमेरिकी सैन्य अड्डे पर ईरान के हमले का ज़िक्र किया, लेकिन ग़ज़ा-लेबनान में इज़राइल की कार्रवाइयों का विश्लेषण नहीं।
रॉयटर्स की भाषा तटस्थ लगती है, लेकिन यह पश्चिमी स्रोतों (अमेरिकी-इज़राइली बयान) पर निर्भर है। इज़राइल के हमलों को “प्रतिक्रिया” के रूप में दिखाया, जो वैधता देता है। ग़ज़ा में नाकेबंदी, लेबनान में हत्याएं, या ईरान की कथित शर्तों का कोई उल्लेख नहीं। रॉयटर्स तथ्यों पर आधारित है, लेकिन इज़राइल-अमेरिका के दृष्टिकोण को प्राथमिकता देता है। यह गलत को गलत कहने में चूक गया।रॉयटर्स ने पश्चिमी हितों को समर्थन दिया और इज़राइल की आक्रामकता को नरम कर प्रस्तुत किया।
सोशल मीडिया दावों की सत्यता जांच
सोशल मीडिया पर वायरल दावों ने युद्ध को धार्मिक और भावनात्मक रंग दिया है। इनकी सत्यता का विश्लेषण भी प्रस्तुत किया जा रहा है।
ईरान की शर्तें: ग़ज़ा से इज़राइली सेना की वापसी, नाकेबंदी हटाना, पुनर्निर्माण, लेबनान से वापसी, और ईरान-अमेरिका मुद्दों का हल जैसी शर्तें सोशल मीडिया पर चर्चित हैं। अल जज़ीरा ने ग़ज़ा-लेबनान में इज़राइल की कार्रवाइयों की आलोचना की, जो इन शर्तों से मिलती-जुलती है, लेकिन बीबीसी, रॉयटर्स, या अन्य विश्वसनीय स्रोतों में इन्हें युद्धविराम की औपचारिक शर्त के रूप में पुष्टि नहीं हुई। ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेज़ेशकियान ने इज़राइल की
इज़राइल का पहला हमला: बीबीसी और रॉयटर्स के अनुसार, इज़राइल ने 13 जून 2025 को ईरान के परमाणु ठिकानों और सैन्य अड्डों पर हमले शुरू किए, जिसके जवाब में ईरान ने मिसाइल दागे। यह दावा सत्य है। लेकिन ग़ज़ा में नाकेबंदी, लेबनान में हसन नसरुल्ला की हत्या, और ऐतिहासिक अत्याचार (कासिम सुलेमानी की हत्या, ईरानी वैज्ञानिकों पर हमले) का संदर्भ पश्चिमी और भारतीय मीडिया में कम है, जिसे अल जज़ीरा ने उजागर किया।
आयतुल्ला खामेनेई की छवि: सोशल मीडिया पर खामेनेई को सत्य और मज़लूमों के पक्ष में अडिग बताया गया। अल जज़ीरा ने उनकी दृढ़ता और फिलिस्तीन समर्थन को कवर किया, जबकि रॉयटर्स ने उनकी बढ़ती अलगाव की बात की।
उनकी छवि को अतिशयोक्तिपूर्ण रूप से प्रस्तुत किया गया, लेकिन उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
कतर में वार्ता और हमला: रॉयटर्स और बीबीसी के अनुसार, कतर में अमेरिका और ईरान के बीच युद्धविराम वार्ता हुई, और ईरान ने कतर में अमेरिकी सैन्य अड्डे पर मिसाइल हमला किया। यह दावा सत्य है।
इज़राइल के अत्याचार और मोनोपोली
ग़ज़ा में नाकेबंदी, अस्पतालों-डॉक्टरों पर हमले, और लेबनान में हसन नसरुल्ला की हत्या सत्य है, जैसा कि अल जज़ीरा ने बताया। इज़राइल और अमेरिका के बीच सैन्य साझेदारी भी सत्य है, जिसने ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले किए।
इज़राइल ने 13 जून 2025 को ईरान पर हमले शुरू किए, जैसा कि बीबीसी और रॉयटर्स ने पुष्टि की। लेकिन इसका संदर्भ गहरा है। इज़राइल ने ग़ज़ा में नाकेबंदी लागू की, जिसने लाखों बच्चों और महिलाओं को भुखमरी और बीमारी की कगार पर ला दिया। लेबनान में हिज़्बुल्लाह नेता हसन नसरुल्ला की हत्या और नागरिकों पर हमले किए। ऐतिहासिक रूप से, इज़राइल ने कासिम सुलेमानी (2020) और ईरानी वैज्ञानिकों की हत्या कर ईरान को उकसाया। अल जज़ीरा ने इन अत्याचारों को बेनकाब किया, जबकि बीबीसी-रॉयटर्स ने इन्हें “सुरक्षा उपाय” बताया।
ईरान ने इज़राइल और आखिर में अमेरिका के हमलों के जवाब में हाइफा और कतर में अमेरिकी अड्डे पर मिसाइल दागे। इसे “आक्रामक” कहना गलत है, क्योंकि यह अपनी रक्षा और जवाबी कार्रवाई थी। जैसे भारत ने पाकिस्तानी आतंकवाद के जवाब में सर्जिकल स्ट्राइक कर बात खत्म की, वैसे ही ईरान ने जवाब दिया। लेकिन इज़राइल ने निरंतर हमले जारी रखे, जिससे युद्ध बढ़ा।
इज़राइल ने अमेरिका के समर्थन से ग़ज़ा, लेबनान, और ईरान को कमज़ोर करने की कोशिश की। ग़ज़ा में नाकेबंदी, लेबनान में हत्याएं, और ईरान पर हमले इसकी मिसाल हैं। इसराइल की “मोनोपोली” का दावा अतिशयोक्ति हो सकता है, लेकिन इज़राइल की आक्रामक नीति और मुस्लिम देशों को निशाना बनाना सत्य है।
ईरान की ताकत
ईरान ने रूस और चीन की मदद ठुकराई और अकेले जवाब दिया। सोशल मीडिया दावों के अनुसार, ईरान ने कहा, “शुरुआत तुमने की, अंत हम करेंगे।” यह भावनात्मक प्रचार हो सकता है, लेकिन ईरान की दृढ़ता सत्य है।
युद्धविराम की वास्तविक स्थिति और भविष्य
24 जून 2025 को ट्रंप ने 12 घंटे के युद्धविराम का ऐलान किया, जो इज़राइल ने ईरान पर हमला कर के तोड़ा। इज़राइल के रक्षा मंत्री ने तेहरान पर हमले के आदेश दिए, और ईरान ने जवाबी हमले की धमकी दी। कतर में वार्ता विफल रही, और ईरान के अमेरिकी अड्डे पर हमले ने स्थिति को जटिल बनाया।
ईरान की शर्तें
सूत्रों के अनुसार, ईरान ने इज़राइल की आक्रामकता रोकने की मांग की थी। ग़ज़ा-लेबनान से संबंधित शर्तें असत्यापित हैं, लेकिन क्षेत्रीय कूटनीति का हिस्सा हो सकती हैं। यदि इज़राइल और अमेरिका ईरान की मांगों को नहीं मानते, तो युद्ध विकराल हो सकता है। यह मध्य पूर्व में अस्थिरता और तेल कीमतों को प्रभावित करेगा।
अल जज़ीरा ने इस युद्ध में सत्य को सबसे करीब से उजागर किया, इज़राइल की आक्रामकता, ग़ज़ा में नाकेबंदी, लेबनान में हत्याएं, और ईरान के जवाबी हमलों को बेनकाब किया। बीबीसी और रॉयटर्स ने इज़राइल-अमेरिका के पक्ष में झुकाव दिखाया, उनके हमलों को “रणनीतिक” और ईरान को “आक्रामक” बताया। भारतीय मीडिया (आज तक, एनडीटीवी, जनसत्ता) ने इज़राइल की सुपरपावर छवि को बढ़ाया और मज़लूमों की पुकार को नजरअंदाज किया, जो “गोदी मीडिया” के आरोप को सही ठहराता है।
सोशल मीडिया पर ईरान की शर्तें और खामेनेई की छवि अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, लेकिन इज़राइल का पहला हमला और ग़ज़ा-लेबनान में अत्याचार सत्य हैं।
निष्पक्ष पत्रकारिता का मतलब है गलत को गलत कहना—इज़राइल की आक्रामकता शुरू से थी, और ईरान ने जवाबी कार्रवाई की। यदि युद्धविराम की शर्तें नहीं मानी गईं, तो युद्ध और भयावह हो सकता है।