(ज़की भारतीय)
लखनऊ| पकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने पद की शपथ लेते समय उर्दू के कुछ लफ्ज़ बोलने में ग़लती की थी |लेकिन इस बात पर भले ही किसी पत्रकार ने कोई तंस न किया हो मगर एक सम्मानित हिंदी समाचार पत्र के एक लेखक ने जो लेख लिखा वो इमरान खान से शुरू किया गया और उर्दू ज़बान पर लाकर समाप्त किया गया |
बात सिर्फ इमरान खान पर व्यंग की नहीं ,बल्कि बात उर्दू ज़बान की है |उर्दू ज़बान को लश्करी ज़बान बोला जाता है ,इसे लश्करी ज़बान इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये कई भाषाओँ पर आधारित है | इसमें अरबी ,फ़ारसी ,हिंदी और अंग्रेजी ज़बानों का मिश्रण है |खासबात ये है कि उर्दू ज़बान के बोलने वाले आपको वैसे तो सम्पूर्ण भारत में मिल जाएंगे लेकिन विश्व में भी उर्दू को समझने वाले मिल जाएंगे |क्योंकि इराक कि ज़बान अरबी है और ईरान में फ़ारसी ज़बान का प्रयोग होता है ,जबकि हिंदी भाषा राष्ट्र की भाषा होने के बावजूद राष्ट्र की भाषा नहीं बन सकी| बिहार में बिहारी ,गुजरात में गुजराती और कन्नड़ जैसी ढेरों भाषाएं राष्ट्र में चल रही हैं | बताते चलें कि अगर प्रमुख सचिव को उर्दू में लिखना है तो अंग्रेजी का इस्तेमाल करना पड़ेगा ,क्योंकि इसे प्रिंसिपल सेक्रेटरी लिखा जाता है |ये एक सिर्फ मिसाल है, इस तरह की दर्जनों मिसालें मौजूद है | दरअसल वर्षों पूर्व फ़ारसी भाषा का चलन था, जिसे आसान करने के लिए उर्दू भाषा का जन्म हुआ ,ठीक वैसे ही जिस तरह संस्कृत भाषा को आसान करने के लिए हिंदी भाषा को अमल में लाया गया | ध्यान रहे कि उर्दू ज़बान सिर्फ भारत की ज़बान है न की पकिस्तान की | लेखक ने उर्दू ज़बान की तौहीन तो की है मगर उनको उर्दू ज़बान के बारे में कोई इल्म ही नहीं ,क्योंकि अगर कोई उर्दू न बोल सके तो इसमें उर्दू ज़बान का क़सूर नहीं बल्कि उर्दू पढ़ने वाले का क़सूर है |मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब और मीर ताकि मीर के वक़्त में शायरी बेहद मुश्किल थी ,उस वक़्त फ़ारसी का इस्तेमाल बहुत होता था |इस फ़ारसी को आसान बनाने के लिए इस उर्दू को लश्करी ज़बान बनाया गया और आज जो उर्दू है वो हिन्दुस्तान की देन है जिसमे लखनऊ का अहम किरदार है |हालाँकि जिस लेखक ने इस मामले पर लेख लिखा है उसने खुद अपने पूरे लेख में 62 जगह उर्दू के लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया है | उन्होंने अपने लेख में लिखा है कि उर्दू ज़बान कुछ लोगों पर ज़बरदस्ती थोप दी गई ,जो कि सरासर ग़लत है |दरअसल उर्दू ज़बान इतनी अच्छी है कि आज लखनऊ की ज़बान पूरी दुनिया में इज़्ज़त के साथ देखी जाती है | क्योंकि इसमें जो अदब और तहज़ीब है उसका डंका सारी दुनिया में है |ये ज़बान इतनी अच्छी है कि इसको सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि और धर्म के लोग भी सीखते आए हैं और आज भी इस ज़बान को लोग सीख रहे हैं |आइये तशरीफ़ लाइए ,कैसा मिज़ाज है ,आपके आने से महफ़िल में रौनक आ गई ,आप आए बहार आई और आपने आकर मुझे इज़्ज़त बख्शी जैसे जुमले दिल करता है बार-बार सुनें और सुनते ही रहें |इस उर्दू ज़बान को लश्करी ज़बान के अलावा बाज़ारू ज़बान भी कहा जाता है | आज कि उर्दू इतनी आसान है जिसे समझने के लिए किसे से पढ़ने की ज़रूरत भी नहीं है , जबकि पहले यही ज़बान बेहद मुश्किल थी |
आज अगर मैं आपको शेर लिखों तो आप आसानी से समझ सकते है ,जैसे (ज़माने से अलग कब तक चलूँगा | मैं अब खुद को बदलना चाहता हूँ |) या (इस दौरे तरक़्क़ी में भी क्या-क्या नहीं होता | ग़ुरबत नहीं होती है केह फ़ाक़ा नहीं होता)| इस तरह के शेरों को कौन नहीं समझ सकता है |बहरहाल लेखक ने जो लिक्खा था उससे उर्दू ज़बान से प्यार करने वालों में खासी नाराज़गी थी और मैं भी एक पत्रकार हूँ ,इसलिए मेरी भी ज़िम्मेदारी थी के जो सत्य है वो लिखकर लोगों को ये बताया जाए कि सभी पत्रकार एक जैसे नहीं होते |हम किसी वर्ग विशेष के विरुद्ध या किसी धर्म के विरुद्ध नहीं होते है हम दर्पण है हमारा काम सच लिखना है ,हमारा काम आम जनमानस के अधिकारों की रक्षा करना है ,लोगों को न्याय दिलाना है ,कुल मिलाकर हम अत्याचारियों के शत्रु हैँ और मज़लूम के हमदर्द | आज पत्रकारिता को बदनाम किया जा रहा है | बेवजह की डिबेट की जा रही हैँ, एक दूसरे के दिलों में नफरत पैदा की जा रही हैँ |आज अफ़सोस की बात है कि लोग मिडिया पर ऊँगली उठा रहे है ,मिडिया बिक गई है आरोप लगा रहे है |ये इस दौर के पत्रकारिता जगत के लिए शर्म की बात है |जो ज़बान पर आया बोल दिया ,जो चाहा लिख दिया |इस पर अंकुश लगाए जाने के लिए प्रयास होना चाहिए ,जिससे पत्रकारों को हिक़ारत की नज़रों से न देखा जाए |